कुंभ मेला पर निबंध

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रूपरेखा : प्रस्तावना - कुंभ मेला का इतिहास - कुंभ मेला 2021 में कब है - कुंभ मेला क्यों लगता है - कुंभ मेला उत्सव कैसे मनाया जाता है - उपसंहार।

परिचय | कुंभ मेले पर्व | कुंभ मेला उत्सव की प्रस्तावना -

कुंभ मेला भारत देश का सबसे पवित्र मेला है। कुंभ मेले में कुंभ का शाब्दिक अर्थ “घड़ा, सुराही, बर्तन” है। यह वैदिक ग्रन्थों में पाया जाता है। इसका अर्थ, अक्सर पानी के विषय में या पौराणिक कथाओं में अमरता के अमृत के बारे में बताया जाता है।

मेला शब्द का अर्थ है, किसी एक स्थान पर एकजुट होना, शामिल होना, मिलना, एक साथ चलना, सभा में या फिर विशेष रूप से सामुदायिक उत्सव में उपस्थित होना। यह शब्द ऋग्वेद और अन्य प्राचीन हिन्दू ग्रन्थों में भी पाया जाता है। इस प्रकार, कुंभ मेले का अर्थ है “एक सभा-मिलन, मिलन” जो “जल या अमरत्व का अमृत” है। कुंभ एक पवित्र मेला माना जाता है।


कुंभ मेला का इतिहास | कुंभ मेला की शुरुआत कैसे हुई | कुंभ की कथा -

कुंभ का इतिहास ये बताता है की आज से लगभग 600 वर्ष ई.पू. से मनाया जा रहा है। इसके वर्तमान रुप की शुरुआत राजा हर्षवर्धन के शासनकाल में हुई थी। इस त्योहार के उत्पत्ति को लेकर कई सारे ऐतिहासिक तथा पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं।

कुंभ मेले उत्पत्ति की सबसे पहली कथा का वर्णन हिंदू धर्म के पुराणों में मिलता है जिनमें से सर्वाधिक मान्य कथा देव-दानवों द्वारा समुद्र मन्थन से प्राप्त अमृत कुंभ से अमृत बूँदें गिरने को लेकर है। इस कथा के अनुसार महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण जब इंद्र और अन्य देवता कमजोर हो गए तो दैत्यों ने देवताओं पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया।

इसके पश्चात देवताओं मिलकर भगवान विष्णु के पास गए और उन्हे सारी बातें बताई। तब भगवान विष्णु ने उनकी बात सुनकर उन्हे दैत्यों के साथ मिलकर क्षीर सागर का मंथन करके अमृत निकालने की सलाह दी। भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर संपूर्ण देवता दैत्यों के साथ सन्धि करके अमृत निकालने के यत्न में लग गए। अमृत कुंभ के निकलते ही देवताओं के इशारे से इन्द्रपुत्र जयंत अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिए जयंत का पीछा किया और घोर परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयंत को पकड़ा।

तत्पश्चात अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव-दानवों में बारह दिन तक अविराम युद्ध होता रहा। इस युद्ध के दौरान पृथ्वी के चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक) पर कलश से अमृत बूँदें गिरी थीं। युद्ध शान्त करने के लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बाँटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव युद्ध का अन्त किया गया। अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर बारह दिन तक लगातार युद्ध हुआ था। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं। यही कारण है कि कुंभ का यह पर्व 12 वर्ष में मनाया जाता है और जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरी थी, वहाँ-वहाँ कुंभ पर्व होता है।


कुंभ मेला क्यों लगता है | कुंभ मनाना क्यों शुरुआत हुआ -

कुंभ हिंदू धर्म के प्रमुख पर्वों में से एक है, इसकी उत्पत्ति को लेकर ऐतिहासिक रुप से कोई विशेष जानकारी नही मिलती है, लेकिन यदि भारतीय इतिहास पर गौर किया जाये तो पता चलता है कि कुंभ मनाने की शुरुआत आज से लगभग 600 वर्ष ई.पू. से मनाया जा रहा है। इसके वर्तमान रुप की शुरुआत राजा हर्षवर्धन के शासनकाल में हुई थी।

कुंभ मेले उत्पत्ति की सबसे पहली कथा का वर्णन हिंदू धर्म के पुराणों में मिलता है जिनमें से सर्वाधिक मान्य कथा देव-दानवों द्वारा समुद्र मन्थन से प्राप्त अमृत कुंभ से अमृत बूँदें गिरने को लेकर है। इस कथा के अनुसार महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण जब इंद्र और अन्य देवता कमजोर हो गए तो दैत्यों ने देवताओं पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया।

इसके पश्चात देवताओं मिलकर भगवान विष्णु के पास गए और उन्हे सारी बातें बताई। तब भगवान विष्णु ने उनकी बात सुनकर उन्हे दैत्यों के साथ मिलकर क्षीर सागर का मंथन करके अमृत निकालने की सलाह दी। तत्पश्चात अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव-दानवों में बारह दिन तक लगातार युद्ध होता रहा। इस युद्ध के दौरान पृथ्वी के चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक) पर कलश से अमृत बूँदें गिरी थीं। युद्ध शान्त करने के लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बाँटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव युद्ध का अन्त किया गया। अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर बारह दिन तक लगातार युद्ध हुआ था। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं। यही कारण है कि कुंभ का यह पर्व मनाया जाता है अर्थात कुंभ का मेला लगता है और जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरी थी, वहाँ-वहाँ कुंभ पर्व होता है। प्रयागराज में आयोजित होने वाले कुंभ को छोड़कर बाकी सभी तीन कुंभ 12 वर्षों के अंतराल पर आयोजित होते है। इसके साथ ही 12 पूर्ण कुंभों के बाद प्रत्येक 144 वर्ष में एक महाकुंभ का आयोजन किया जाता है।


कुंभ मेला उत्सव कैसे मनाया जाता है | कुंभ मेला में क्या सब होता है -

कुंभ मेले में जुटने वाली भीड़ को देखते हुए कुंभ आयोजन स्थान पर महिनों पहले से ही तैयारी शुरु कर दी जाती है। कुंभ मेले के दौरान आयोजन स्थल पर इन 50 दिनों में लगभग मेले जैसा माहौल रहता है और करोड़ों के तादाद में श्रद्धालु इस दिन पवित्र स्नान में भाग लेने के लिए पहुंतते है। मकर संक्रांति के दिन आरंभ होने वाले कुंभ मेले की शुरुआत हमेशा अखाड़ों की पेशवाई के साथ होती है।

आखाड़ों के इस स्नान को शाही स्नान भी कहते हैं। लोगों का मानना है की कुंभ मेला में जा के स्नान करने से जीवन के सारे पाप, कष्ट दूर हो जाते है। मनुष्य भीतर से पवित्र हो जाता है और उसकी सारी मनोकामना पूरी हो जाती है। कुंभ मेला के दौरान लोग अपने परिजनों रात पहले आते है अगले सुबह जल्दी उठकर स्नान करने चले जाते है। स्नान करते समय वो अपने भगवान से उनकी सारी परेशानी, कष्ट, चिंता मुस्किले दूर करने करते है। संध्याकाल वहाँ घूम-फिरकर मेला का आनंद लेकर, प्रसाद लेकर, अपने रिश्तेदारों के लिए उपहार आदि चीजें लेकर वह से प्रस्थान करते है और अपने-अपने घर लौट जाते हैं।


उपसंहार -

ज्योतिषियों के अनुसार कुंभ मेला के दिन ग्रहों की स्थिति हरिद्वार से बहती गंगा के किनारे पर स्थित हर की पौड़ी स्थान पर गंगा जल को औषधिकृत करती है तथा उन दिनों यह अमृतमय हो जाती है। यही कारण है ‍कि अपनी अन्तरात्मा की शुद्धि हेतु पवित्र स्नान करने लाखों श्रद्धालु यहाँ आते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से अर्ध कुंभ के काल में ग्रहों की स्थिति एकाग्रता तथा ध्यान साधना के लिए उत्कृष्ट होती है। हालाँकि सभी हिन्दू त्योहार समान श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाए जाते है।


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