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रुपरेखा : प्रस्तावना - महर्षि दयानंद सरस्वती जयंती 2022 - महर्षि दयानंद सरस्वती जी का इतिहास - महर्षि दयानंद सरस्वती जी की कथा - क्रांति में योगदान - आर्य समाज की स्थापना - उपसंहार।
प्रस्तावना -स्वामी दयानन्द सरस्वती जी एक महान देशभक्त एवं मार्गदर्शक थे, जिन्होंने अपने कार्यो से समाज को नयी दिशा दिखाई थी। महात्मा गाँधी जैसे कई वीर पुरुष स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचारों से प्रभावित थे। उन्होंने जीवन भर वेदों और उपनिषदों का पाठ किया और संसार के लोगो को उस ज्ञान से लाभान्वित किया। इन्होने मूर्ति पूजा को व्यर्थ बताया तथा निराकार ओमकार में भगवान का अस्तित्व है, यह कहकर इन्होने वैदिक धर्म को सर्वश्रेष्ठ बताया। वर्ष 1875 में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की तथा 1857 की क्रांति में भी स्वामी जी ने अपना अमूल्य योगदान दिया।
वर्ष 2022 में महर्षि दयानंद सरस्वती जयंती 26 फरवरी, शनिवार के दिन मनाया जायेगा।
महर्षि दयानंद सरस्वती जी का जन्म 12 फरवरी 1824 में हुआ था। वे जाति से एक ब्राह्मण थे और इन्होने शब्द ब्राह्मण को अपने कर्मो से परिभाषित किया। ब्राह्मण वही होता हैं जो ज्ञान का उपासक हो और अज्ञानी को ज्ञान देने वाला दानी होता है। महर्षि दयानंद सरस्वती वैदिक धर्म में विश्वास रखते थे। उन्होंने राष्ट्र में व्याप्त कुरीतियों एवं अंधविश्वासो का सदैव विरोध किया। उन्होंने समाज को नयी दिशा एवं वैदिक ज्ञान का महत्व समझाया। इन्होने कर्म और कर्मो के फल को ही जीवन का मूल सिधांत बताया था। यह एक महान विचारक थे, जिन्होंने अपने विचारों से समाज को धार्मिक आडम्बर से दूर करने का प्रयास किया और स्वराज्य का संदेश दिया। जिसे बाद में बाल गंगाधर तिलक ने अपनाया और स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार हैं का नारा दिया। देश के कई महान सपूत स्वामी दयानंद सरस्वती जी के विचारों से प्रेरित थे और उनके दिखाये मार्ग पर चलकर ही उन सपूतों ने देश को आजादी दिलाई।
महर्षि दयानंद सरस्वती जी का प्रारम्भिक नाम मूलशंकर अंबाशंकर तिवारी था। इनका जन्म 12 फरवरी 1824 को टंकारा गुजरात में एक ब्राह्मण कूल से हुआ था। पिता एक समृद्ध नौकरी पेशा व्यक्ति थे इसलिए परिवार में धन धान्य की कमी नहीं थी। इन्होने वर्ष 1846, 21 वर्ष की आयु में सन्यासी जीवन लेने का फैसला किया। एक बार महाशिवरात्रि के पर्व पर इनके पिता ने इनसे उपवास करके विधि विधान के साथ पूजा करने को कहा और साथ ही रात्रि जागरण व्रत का पालन करने कहा। पिता के निर्देशानुसार मूलशंकर ने व्रत का पालन किया, पूरा दिन उपवास किया और रात्रि जागरण के लिए वे शिव मंदिर में ही पालकी लगा कर बैठ गये। अर्धरात्रि में उन्होंने मंदिर में एक दृश्य देखा, जिसमे चूहों का झुण्ड भगवान की मूर्ति को घेरे हुए हैं और सारा प्रशाद खा रहे हैं। तब मूलशंकर जी के मन में प्रश्न उठा, यह भगवान की मूर्ति वास्तव में एक पत्थर की शिला ही हैं, जो स्वयं की रक्षा नहीं कर सकती, उससे हम क्या अपेक्षा कर सकते हैं ? उस एक घटना ने मूलशंकर के जीवन में बहुत बड़ा प्रभाव डाला और उन्होंने आत्म ज्ञान की प्राप्ति के लिए अपना घर छोड़ दिया और स्वयं के ज्ञान के लिए मूलशंकर तिवारी से महर्षि दयानंद सरस्वती बन गए।
वर्ष 1846 में घर से निकलने के बाद उन्होंने सबसे पहले अंग्रेजो के खिलाफ बोलना प्रारंभ किया। देश भ्रमण के दौरान यह पाया, कि लोगो में भी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आक्रोश हैं, बस उन्हें उचित मार्गदर्शन की जरुरत है, इसलिए उन्होंने लोगो को एकत्र करने का कार्य किया। उस समय के महान वीर भी स्वामी जी से प्रभावित थे, उन में तात्या टोपे, नाना साहेब पेशवा, हाजी मुल्ला खां, बाला साहब आदि। लोगो को जागरूक कर सभी को सन्देश वाहक बनाया गया, जिससे आपसी रिश्ते बने और इस कार्य के लिए उन्होंने रोटी तथा कमल योजना भी बनाई और सभी को देश की आजादी के लिए जोड़ना प्रारंभ किया। सबसे पहले उन्होंने साधू संतो को जोड़ा, जिसके माध्यम से जन साधारण को आजादी के लिए प्रेरित किया जा सके। हालाँकि 1857 की क्रांति विफल रही, लेकिन स्वामी जी में निराशा के भाव नहीं थे। उनका मानना था कई वर्षो की गुलामी एक संघर्ष से नही मिल सकती, इसके लिए अभी भी उतना ही समय लग सकता है, जितना अब तक गुलामी में काटा हैं। उन्होंने सभी को विश्वास दिलाया कि यह खुश होने का वक्त हैं, क्यूंकि आजादी की लड़ाई बड़े पैमाने पर शुरू हो गई हैं और आने वाले कल में देश आजाद हो कर रहेगा। इस क्रांति के बाद स्वामी जी ने अपने गुरु विरजानंद के पास जाकर वैदिक ज्ञान की प्राप्ति किया और देश में नए विचारों का संचार किया।
वर्ष 1875 में महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने गुड़ी पड़वा के दिन मुंबई में आर्य समाज की स्थापना किया। आर्य समाज का मुख्य धर्म, मानव धर्म ही था जिसे इन्होने परोपकार, मानव सेवा, कर्म एवं ज्ञान को मुख्य आधार बताया जिनका उद्देश्य मानसिक, शारीरिक एवम सामाजिक उन्नति था। ऐसे विचारों के साथ स्वामी जी ने आर्य समाज की नींव रखी, जिससे कई महान विद्वान प्रेरित हुए। इसी तरह अंधविश्वास के अंधकार में वैदिक प्रकाश की अनुभूति सभी को होने लगी थी। वैदिक प्रचार के उद्देश्य से स्वामी जी देश के हर हिस्से में व्यख्यान देते थे, संस्कृत में प्रचंड होने के कारण इनकी शैली संस्कृत भाषा ही थी। बचपन से ही इन्होने संस्कृत भाषा को पढ़ना और समझना प्रारंभ कर दिया था, इसलिए वेदों को पढ़ने में इन्हें कोई परेशानी नहीं हुई। आर्यसमाज का समर्थन सबसे अधिक पंजाब प्रान्त में किया गया।
वर्ष 1883 में स्वामी जी का स्वास्थ ख़राब होने के कारन उन्हें 26 अक्टूबर को अजमेर भेजा गया, लेकिन हालत में सुधार नहीं आया और उन्होंने 30 अक्टूबर 1883 में स्वर्गवासी हो गए। अपने 59 वर्ष के जीवन में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने राष्ट्र में व्याप्त बुराइयों के खिलाफ लोगो को जगाया और अपने वैदिक ज्ञान से नवीन प्रकाश को देश में फैलाया। यह एक संत के रूप में शांत वाणी से गहरा कटाक्ष करने की शक्ति रखते थे और उनके इसी निर्भय स्वभाव ने देश में स्वराज का संचार किया। स्वामी जी ने सदैव नारी शक्ति का समर्थन किया तथा उनका मानना था, कि नारी शिक्षा ही समाज का विकास हैं। उनका कहना था, जीवन के हर एक क्षेत्र में नारियों से विचार विमर्श आवश्यक हैं, जिसके लिये उनका शिक्षित होना जरुरी हैं।
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