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रूपरेखा: प्रस्तावना - गुरु गोबिंद सिंह जयंती कब है 2023 - गुरु गोबिंद सिंह जी का बचपन - गुरु गोविंद सिंह का इतिहास - गुरु गोबिंद सिंह जयंती क्यों मनाया जाता है - गुरु गोबिंद सिंह जयंती कैसे मनाया जाता है - खालसा पंथ की स्थापना - उपसंहार।
गुरु गोबिंद सिंह जयंती का प्रस्तावनाश्री गुरु गोबिंद सिंह जी को सब लोग सिखों के दसवें गुरु के तौर पर जानते थे। वे एक बहुत ही शौर्य, साहस, पराक्रम और वीरता के प्रतीक श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिखों को पंच ककार धारण करने का आदेश दिया था। वे एक शूरवीर और तेजस्वी नेता जाने जाते थे। उन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की थी। उन्होंने मुगलों के बुराई के खिलाफ आवाज उठाया था और ‘सत श्री अकाल’ का नारा लगाया था। गुरु जी ने कमज़ोरों को वीर और बहादुरों को सिंह बना दिया था।
सिखों के 10वें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी की जयंती वर्ष 2023 में, 5 जनवरी गुरुवार के दिन मनाया जायेगा।
गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म 22 दिसंबर, 1666 को बिहार की राजधानी पटना के घर में हुआ था। उनके बचपन का नाम गोविंद राय था। उनके पिता नौवें गुरु श्री तेग बहादुर जी कुछ वक्त के बाद पंजाब वापिस आ गए थे। पटना में जिस घर में उनका जन्म हुआ था और जिसमें उन्होने अपने प्रथम चार वर्ष बिताये , वहीं पर अब तखत श्री हरिमंदर जी पटना साहिब स्थित है। गुरु गोबिंद सिंह जी बचपन से ही स्वाभिमानी व वीर थे। घोड़े की सवारी लेना, हथियार पकड़ना, मित्रों की दो टोलियां को एकत्रित करके युद्ध करना और शत्रु को हराने के लिए खेल में शामिल थे। गुरु जी ने खेल में अपने मित्रों का साथ दिया। उनकी बुद्धि काफी तेज थी। उन्होंने बहुत ही सरलता से हिन्दी, संस्कृत व फारसी का पर्याप्त ज्ञान हासिल किया था।
1670 में उनका परिवार फिर पंजाब आ गया। मार्च 1672 में उनका परिवार हिमालय के शिवालिक पहाड़ियों में स्थित चक्क नानकी नामक स्थान पर आ गया। चक्क नानकी ही आजकल आनन्दपुर साहिब कहलता है। यहीं पर इनकी शिक्षा आरंभ हुई। उन्होंने फारसी, संस्कृत की शिक्षा ली और एक योद्धा बनने के लिए सैन्य कौशल सीखा। गोविंद राय जी नित्य प्रति आनदपुर साहब में आध्यात्मिक आनंद बाँटते, मानव मात्र में नैतिकता, निडरता तथा आध्यात्मिक जागृति का संदेश देते थे। आनंदपुर वस्तुतः आनंदधाम ही था। यहाँ पर सभी लोग वर्ण, रंग, जाति, सम्प्रदाय के भेदभाव के बिना समता, समानता एवं समरसता का अलौकिक ज्ञान प्राप्त करते थे। गोविंद जी शान्ति, क्षमा, सहनशीलता की मूर्ति थे।
कश्मीरी पंडितों का जबरन धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बनाये जाने के विरुद्ध फरियाद लेकर गुरु तेग बहादुर जी आगे आये। उस समय गुरु गोबिंद सिंह जी नौ साल के थे। कश्मीरी पंडितों की फरियाद सुन उन्हें जबरन धर्म परिवर्तन से बचाने के लिए स्वयं इस्लाम न स्वीकारने के कारण 11 नवंबर 1675 को औरंगज़ेब ने दिल्ली के चांदनी चौक में सार्वजनिक रूप से उनके पिता गुरु तेग बहादुर का सिर कटवा दिया। इसके पश्चात वैशाखी के दिन 29 मार्च 1676 को गोबिंद सिंह सिखों के दसवें गुरु घोषित हुए। 10वें गुरु बनने के बाद भी उनकी शिक्षा जारी रही। शिक्षा के अन्तर्गत उन्होनें लिखना-पढ़ना, घुड़-सवारी तथा सैन्य कौशल सीखे 1684 में उन्होने चण्डी दी वार की रचना की।
गुरु गोबिंद सिंह की तीन पत्नियाँ थीं। 21 जून, 1677 को 10 साल की उम्र में उनका विवाह माता जीतो के साथ आनंदपुर से 10 किलोमीटर दूर बसंतगढ़ में किया गया। उन दोनों के 3 पुत्र हुए जिनके नाम थे - जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फ़तेह सिंह। 4 अप्रैल, 1684 को 17 वर्ष की आयु में उनका दूसरा विवाह माता सुंदरी के साथ आंनदपुर में हुआ। गुरु गोबिंद सिंह और माता सुंदरी के एक बेटा हुआ जिसका नाम अजित सिंह था। 15 अप्रैल, 1700 को 33 वर्ष की आयु में उन्होंने माता साहिब देवन से विवाह किया। वैसे तो उनका कोई संतान नहीं था पर सिख पंथ के पन्नों पर उनका दौर भी बहुत प्रभावशाली रहा।
गुरु गोबिंद सिंह सिखों के 10वें गुरु थे। उन्होंने सिखों के पवित्र ग्रंथ (ग्रन्थ) गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा किया तथा उन्हें गुरु रूप में सुशोभित किया। विचित्र नाटक अकाल उसत्त , चण्डी दी वार उनकी आत्मकथा है। यही उनके जीवन के विषय में जानकारी का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है। यह दसम ग्रन्थ का एक भाग है। दसम ग्रन्थ (ग्रन्थ), गुरू गोबिन्द सिंह की कृतियों के संकलन का नाम है। उन्होने जुलम और पापों का खत्म करने के लिए और गरीबों की रक्षा के लिए मुगलों के साथ 14 युद्ध लड़े। और उन्होंने सभी के सभी युद्धों में विजय प्राप्त की। धर्म के लिए समस्त परिवार का बलिदान उन्होंने किया, जिसके लिए उन्हें 'सरबंसदानी' (पूरे परिवार का दानी ) भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त जनसाधारण में वे कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले, आदि कई नाम, उपनाम व उपाधियों से भी जाने जाते हैं। उनके इस बलिदान को याद करने के लिए हर साल गुरु गोबिंद सिंह जयंती मनाया जाता है।
गुरु गोबिंद सिंह जयंती, सिखों के 10वें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी की याद में हर साल भर में सिखों द्वारा मनाया जाता है। इस दिन देशभर में गुरुद्वारों को सजाया जाता है। लोग अरदास, भजन, कीर्तन के साथ लोग गुरुद्वारे में मत्था टेकने जाते हैं। इस दिन नानक वाणी पढ़ी जाती है और दान पुण्य आदि लोक कल्याण के तमाम कार्य किए जाते हैं। इस दिन देश-विदेश में स्थापित सभी गुरुद्वारों में लंगर रखा जाता है। सभी लोग गुरुद्वारों में गुरु गोबिंद सिंह जी का महाप्रसाद खाने जाते है।
गुरु गोबिंद सिंह जी का नेतृत्व सिख समुदाय के इतिहास में बहुत कुछ नया ले कर आया। उन्होंने सन 1699 में बैसाखी के दिन खालसा जो की सिख धर्म के विधिवत दीक्षा प्राप्त अनुयायियों का एक सामूहिक रूप है उसका निर्माण किया। सिख समुदाय के एक सभा में उन्होंने सबके सामने पुछा – "कौन अपने सर का बलिदान देना चाहता है"? उसी समय एक स्वयंसेवक इस बात के लिए राज़ी हो गया और गुरु गोबिंद सिंह उसे तम्बू में ले गए और कुछ देर बाद वापस लौटे एक खून लगे हुए तलवार के साथ। गुरु ने दोबारा उस भीड़ के लोगों से वही सवाल दोबारा पुछा और उसी प्रकार एक और व्यक्ति राज़ी हुआ और उनके साथ गया पर वे तम्बू से जब बाहर निकले तो खून से सना तलवार उनके हाथ में था। उसी प्रकार पांचवा स्वयंसेवक जब उनके साथ तम्बू के भीतर गया, कुछ देर बाद गुरु गोबिंद सिंह सभी जीवित सेवकों के साथ वापस लौटे और उन्होंने उन्हें पंज प्यारे या पहले खालसा का नाम दिया।
उसके बाद गुरु गोबिंद जी ने एक लोहे का कटोरा लिया और उसमें पानी और चीनी मिला कर दुधारी तलवार से घोल कर अमृत का नाम दिया। पहले 5 खालसा के बनाने के बाद उन्हें छठवां खालसा का नाम दिया गया जिसके बाद उनका नाम गुरु गोबिंद राय से गुरु गोबिंद सिंह रख दिया गया। उन्होंने पांच ककारों का महत्व खालसा के लिए समझाया और कहा – केश, कंघा, कड़ा, किरपान, कच्चेरा। इधर 27 दिसंबर सन 1704 को दोनों छोटे साहिबजादे और जोरावर सिंह व फतेह सिंहजी को दीवारों में चुनवा दिया गया। जब यह हाल गुरुजी को पता चला तो उन्होंने औरंगजेब को एक जफरनामा (विजय की चिट्ठी) लिखा, जिसमें उन्होंने औरगंजेब को चेतावनी दी कि तेरा साम्राज्य नष्ट करने के लिए खालसा पंथ तैयार हो गया है।
8 मई सन 1705 में 'मुक्तसर' नामक स्थान पर मुगलों से भयानक युद्ध हुआ, जिसमें गुरुजी की जीत हुई। अक्टूबर सन 1706 में गुरुजी दक्षिण में गए जहाँ पर औरंगजेब की मृत्यु का पता लगा। औरंगजेब ने मरते समय एक शिकायत पत्र लिखा था। हैरानी की बात है कि जो सब कुछ लुटा चुका था, (गुरुजी) वो फतहनामा लिख रहे थे व जिसके पास सब कुछ था वह शिकस्त नामा लिख रहा है। इसका कारण था सच्चाई। गुरुजी ने युद्ध सदैव अत्याचार के विरुद्ध किए थे न कि अपने निजी लाभ के लिए। औरंगजेब की मृत्यु के बाद आपने बहादुरशाह को बादशाह बनाने में मदद की। गुरुजी व बहादुरशाह के संबंध अत्यंत मधुर थे। इन संबंधों को देखकर सरहद का नवाब वजीत खाँ घबरा गया। अतः उसने दो पठान गुरुजी के पीछे लगा दिए। इन पठानों ने गुरुजी पर धोखे से घातक वार किया, जिससे 7 अक्टूबर 1708 में गुरुजी (गुरु गोबिंद सिंह जी) नांदेड साहिब में दिव्य ज्योति में लीन हो गए। अंत समय आपने सिक्खों को गुरु ग्रंथ साहिब को अपना गुरु मानने को कहा व खुद भी माथा टेका। गुरुजी के बाद माधोदास ने, जिसे गुरुजी ने सिक्ख बनाया बंदासिंह बहादुर नाम दिया था, सरहद पर आक्रमण किया और अत्याचारियों पर जीत प्राप्त की।
खालसा पंथ की स्थापना गुरु गोबिन्द सिंह जी ने 1699 को बैसाखी वाले दिन आनंदपुर साहिब में की। इस दिन उन्होंने सर्वप्रथम पाँच प्यारों को अमृतपान करवा कर खालसा बनाया तथा तत्पश्चात् उन पाँच प्यारों के हाथों से स्वयं भी अमृतपान किया। सतगुरु गोबिंद सिंह ने खालसा महिमा में खालसा को "काल पुरख की फ़ौज" पद से निवाजा है। तलवार और केश तो पहले ही सिखों के पास थे, गुरु गोबिंद सिंह ने "खंडे बाटे की पाहुल" तयार कर कछा, कड़ा और कंघा भी दिया। इसी दिन खालसे के नाम के पीछे "सिंह" लग गया। शारीरिक देख में खालसे की भिन्ता नजर आने लगी। पर खालसे ने आत्म ज्ञान नहीं छोड़ा, उस का प्रचार चलता रहा और आवश्यकता पड़ने पर तलवार भी चलती रही।
गुरु गोविंद सिंह जहाँ विश्व की बलिदानी परम्परा में अद्वितीय थे, वहीं वे स्वयं एक महान लेखक, मौलिक चिन्तक तथा संस्कृत सहित कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने स्वयं कई ग्रन्थों की रचना की। वे विद्वानों के संरक्षक थे। उनके दरबार में 52 कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें 'संत सिपाही' भी कहा जाता था। वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे। उन्होंने सदा प्रेम, एकता, भाईचारे का संदेश दिया। किसी ने गुरुजी का अहित करने की कोशिश भी की तो उन्होंने अपनी सहनशीलता, मधुरता, सौम्यता से उसे परास्त कर दिया। गुरुजी की मान्यता थी कि मनुष्य को किसी को डराना भी नहीं चाहिए और न किसी से डरना चाहिए। वे अपनी वाणी में उपदेश देते हैं भै काहू को देत नहि, नहि भय मानत आन। वे बाल्यकाल से ही सरल, सहज, भक्ति-भाव वाले कर्मयोगी थे। उनकी वाणी में मधुरता, सादगी, सौजन्यता एवं वैराग्य की भावना कूट-कूटकर भरी थी। उनके जीवन का प्रथम दर्शन ही था कि धर्म का मार्ग सत्य का मार्ग है और सत्य की सदैव विजय होती है।
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