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रूपरेखा : प्रस्तावना - व्यक्तित्व की पहचान - पर्यटन-शौक की मूलवृति - पर्यटन का महत्व - साधु-संतों में पर्यटण शौक - साहित्यकारों में पर्यटन शौक - विश्व के घुमक्कड़ (घूमनेवाला) - उपसंहार।
परिचय | पर्यटन का शौक की प्रस्तावना -भिन-भिन देशों में भ्रमणार्थ की जाने वाली यात्रा या पर्यटन देशाटन है और वही लोग जाते है जिनको पर्यटन अर्थात यात्रा करने का शौक होता है। विभिन्न देशों के महत्त्वपूर्ण स्थलों की यात्रा करना वहा के धर्म संस्कृति को जानना आदि का शौक रखने वाले पर्यटन करते है।
शौक या अभिरुचि हमारे जीवन की परख है, हमारे व्यक्तित्व की पहचान है। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को अध्ययन का शौक था, पंडित जवाहरलाल नेहरू को अचकन में गुलाब का फूल लगाने में रुचि थी, मोरारजी भाई देसाई को योगासन करने का शौक था और राजनीतिज्ञ को हवाई किले बनाने तथा झूठे आश्वासन देने का शौक होता है।
अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेखक चेस्टाटन को यात्रा करने का बड़ा शौक था। यात्रा के बड़ी- बड़ी योजनाएँ बनाकर वह हफ्तों मित्रों से बहस करता था और जब यात्रा पर निकलता, तो कुछ घंटे स्टेशन पर गुजार कर बोरिया-बिस्तर के साथ वापिस आ जाता था। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बैंजामिन डिजरायली को विरोधियों पर तीक्ष्ण कटाक्ष करने का शौक था। इस शौक के कारण उसने सुप्रसिद्ध बुजुर्ग पार्लियामेंटेरियन (संसदूज्ञ) सर डेनियल ओकोपेल को भी नहीं बक्शा। ब्रिटेन की संसद में भूचाल आ गया, किन्तु डिजरायली अर्ध मुस्कान के साथ चोट करता रहा।
देश-विदेश दर्शन पर्यटन-शौक की मूलवृति है, जिसमें एक ओर प्रकृति की पुकार है तो दूसरी ओर साहसिक जिज्ञासा यात्रा मानों विराट मानवीय विकास की ही एक सीमित प्रतीक है। दूसरी ओर यात्रा आत्म-साक्षात्कार और प्रत्यभिज्ञा का निमित्त बनती हैं । लेकिन पुण्य-लाभ के लिए तीर्थाटन करने वाले यात्री विशेष से निर्विशेष होकर समूह के साथ एकात्म होकर, उस एकात्मकता में ही अपनी नियति की पहचान कर लक्ष्य तक पहुँचते हैं ।
महादेवी जी के शब्दों, 'हमारी संस्कृति में यात्राओं का विशेष महत्त्व है, क्योंकि इस विचित्रता-भरी धरती में एक संस्कृति का प्रश्त यायावरी के साथ जुड़ा हुआ है। देव-प्रतिमाओं के दर्शन, प्रकृति में ईश्वर की रहस्यमयी लीला को जानने की जिज्ञासा, धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान, प्रतीकों को साक्षात् अपने नयथनों से देखने की अभिलापा तथा विश्व की अद्भुत कला और सौन्दर्य के दर्शन यात्रा करने की उत्कंठा मानव का यात्री बनने को विवश करते हैं। यह विवशता ही शौक में बदल कर यात्रा की कठिनाइयों से उत्साह लेती है तथा कष्टों से रस ग्रहण करती है।
धर्म-प्रचारक साधु-संत, गृहस्थी, संन्यासी स्वभाव से ही पर्यटक थे । संन्यासियों को इसी कारण परिव्राजक कहा जाता है। निर्गुण ईश्वर के आराधक कबीर, नानक, सगुण प्रभु के विश्वासी तुलसी, सूर, रामानुज-माध्वाचार्य, बुद्धमत के संस्थापक महात्मा बुद्ध, चौबीसवें तीर्थंकर महावीर, चारों मठों के संस्थापक जगदगुरु आद्य शंकराचार्य, वैदिक धर्म का डंका बजाने वाले महर्षि दयानन्द और विवेकानन्द, हिन्दुत्त्त के स्वाभिमान को जागृत करने वाले चारों संघचालक (परम पृज्य डॉ. हेडगेवार, गुरुजी, बाला साहब देवरस तथा रज्जू भेया) धार्मिक यात्री बने तभी भारत की आध्यात्मिक पहचान को प्रखर कर सके, भारतीय इतिहास में अपना नाम अमिट स्वर्णक्षरों में लिखवा सके।
साहित्यकारों में भी पर्यटन का अत्यधिक शौक रहा। इस शौक के कारण ही उनका लेखन जीवन के यथार्थ को प्रकट कर सका और पाठक के हृदय को झकझोर सका। छायावादी काव्य के स्तम्भ प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी का काव्य उनके प्रकृति-दर्शन का सत्य है। राष्ट्रयता के गायक मैथलीशरण गुप्त, दिनकर, सोहनलाल द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी के काव्य में भारत की आत्मा बोलती है। प्रेमचंद का साहित्य तो है ही राष्ट्रीय आन्दोलन का भाष्य है। इन सबसे बड़े यात्री-साहित्यकार हुए हैं राहुल सांकृत्यायन जिनका जीवन ही 'अथा तो घुमक्कड़-जिज्ञासा' के नाम से प्रसिद्ध है।
विश्व घुमक्कड़ों की भी कमी नहीं है। उस साधन विहीन समय में विश्व-खोज करने वाले यात्रियों का अदम्य साहस, उत्कृष्ट उत्साह और उमंग की कल्पना करके शरीर रोमांचित हो जाता है । जितनी दूर की यात्रा उतना ही खतरा पतन का इस सिद्धांत वाक्य को "प्राण जाएं पर शौक न जाहि" के सिद्धांत से मूर्तिमंत किया। प्राणियों की उत्पत्ति और मानव-वंश के विकास के अद्वितीय खोजी चार्ल्स डारविन, पश्चिमी देशों के मार्गदर्शक कोलम्बस और वास्को द गामा, चीनी यात्री फाहियान के नाम के साथ राहुल सांस्कृत्यायन का नाम यात्रा-शौक के दीवानों में अजर-अमर रहेगा।
इस वैज्ञानिक युग में यातायात के साधनों के विकास, सुविधा तथा क्षिप्र-गतिता ने इसके कंटकाकीर्ण पथ के काँटे बुहार दिए हैं। स्थान-स्थान पर धर्मशालाओं, होटलों तथा रेस्ट हाउसों में ठहरने की सुविधा ने शारीरिक क्रांति को अँगूठा दिखा दिया है। हर स्थान पर प्राप्त ऐच्छिक शाकाहारी तथा मांसाहारी भोजन ने खाने की चिंता को धता बता दी है। यातायात, निवास तथा भोजन की सुविधा संगम ने यात्रा-शौक में आम आदमी को भी इस गंगा में डुबकी लगाने को प्रेरित किया है । इसलिए पृथ्वी पर जन्मे मानव की प्रकृति यात्रामयी बन गई है। वह तीर्थ-यात्रा के नाम पर, विख्यात ऐतिहासिक स्थानों तथा कला-कृतियों के दर्शन के बहाने प्रकृति का सानिध्य प्राप्ति की जिज्ञासा में, विभिन प्रांतों, राष्ट्रों की सभ्यता-संस्कृति के अध्ययन निमित्त यात्रा रूपी गंगा में स्नान कर अपने जीवन को धन्य कर ज्ञान के नेत्र खोलना चाहता है।
पर्यटन का शौक की पूर्ति निर्भर करती है आर्थिक स्थिति और कष्ट-सहन करने की क्षमता पर। घर पर चौखट छोड़ते ही कष्ट और बटुए से नोट निकलने शुरु हो जाते हैं। वाहनों की लूट-प्रवृत्ति और कहीं-कहीं भाषा समझने की दरिद्रता विमुखता उत्पन्न करती है। पर्यटन-स्थलों पर सुरक्षा-कर्मियों का, धार्मिक-स्थलों पर पंडों का, होटलों में गैरों का व्यवहार मनोबल तोड़ता है। असामाजिक तत्त्वों की छेड़छाड़ तथा चौर्य कर्म शौक से तोबा करवा देते हैं। वेदव्यास जी के शब्दों में, “वीर भोग्या वसुंधरा ' के अनुसार वोर ही पर्यटन-शौक का भोग कर सकते हैं।
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