मेले का दृश्य पर निबंध

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किसी मेले का आँखों देखा हाल पर हिंदी निबंध - मेला का गजब नजारा - चहल-पहल का वातावरण - जगह-जगह रंग-बिरंगी चीजें - खाने-पिने का स्टाल - खेलने-कूदने का मेला - अनेक चीजे खरीदना - Mela ka Drishy - Essay on Fair Scene in Hindi - The View of a Fair from My Eyes Essay in Hindi

रूपरेखा : प्रस्तावना - प्रगति मैदान में मेला - भारतीय भाषाओं के स्थल - भारतीय संस्कृति और सभ्यता का नमूना - अंग्रेजी मंडप में पर्याप्त भीड़ - उपसंहार।

परिचय | मेले का दृश्य की प्रस्तावना -

"मेला" यह शब्द सुनते ही बच्चों के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। यह शब्द सुनते ही बच्चे अपने दादा, नाना, नानी, दादी से चिपक जाते है। मेला हमेशा से भारतीय परंपरा का एक अभिन्न अंग रहा है। मेले में व्यतीत किए गए क्षण सभी को आनंदित कर देते हैं और ये क्षण सदा के लिए व्यक्ति की स्मृति में रह जाते हैं। हर कोई चाहे बच्चा हो या वृद्ध या फिर महिला हो या पुरुष मेले में जाने के लिए हमेशा उत्सुक रहते हैं। इन सभी में बच्चे सबसे अधिक मेले को देखने की इच्छा रखते हैं। उन्हें वहां जादू देखने और झूला झूलने से लेकर खाने की सभी चीजें मिल जाती हैं। बच्चे मेला शुरू होने से कुछ दिन पूर्व ही मेले में जाने के सपने देखने लगते हैं। मेला सचमुच सभी के जीवन का एक यादगार यादे हैं।


प्रगति मैदान में मेला -

नई दिल्‍ली में भारत के उच्चतम न्यायालय की बाईं ओर लालबहादुर शास्त्री मार्ग पर एक विशाल मैदान है, जिसे 'प्रगति-मैदान' के नाम से जाना जाता है। वस्तुत: यह मैदान प्रदर्शनी स्थल है। राष्ट्रीय तथा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर यहाँ प्रदर्शिनियाँ लगती रहती हैं। प्रदर्शनी राष्ट्र की प्रगति की सूचक होती है। अत: इस मैदान का नाम 'प्रगति मैदान' रखा गया है।

29 मार्च, 2020 को रविवार का दिन। पुस्तक मेले का अंतिम दिन । पिताजी ने प्रातः ही घोषणा कर दी कि आज ' पुस्तक मेला ' देखने जाएँगे । अत: रविवार होते हुए भी भोजन अपेक्षा-कृत जल्दी बना । खा-पीकर, विश्राम करने के उपरान्त ग्यारह बजे के लगभग हम चल पड़े प्रदर्शनी देखने। पिताजी ने बड़ी बहन, माताजी और मुझे साथ लिया टैक्सी की और चल दिए प्रगति-मैदान के लिए। लगभग आधा घंटे में हम वहाँ पहुँच गए।

पुस्तक-प्रदर्शनी पाँच हॉलों में लगी थीं। तीनों हॉल एक दूसरे से पर्याप्त दूरी पर थे। सबसे सुन्दर स्थान अंग्रेजी वालों का था। वे दो हॉल और तीसरे हॉल का ग्राउंड फ्लोर घेरे हुए थे। हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाएँ दासी-पुत्री होने के कारण जरा दूर 6 नंबर हॉल में बिठा रखी थीं।

हिन्दी को पृथक हॉल प्रदान नहीं किया गया था। अंग्रेजी की मानसिकता के व्यवस्थापकों में हिन्दी को गौरव प्रदान करने का प्रश्न ही नहीं उठता। इसलिए भारतीय भाषाओं के अंदर उसे स्थान दिया गया। 'हिन्दी-हॉल' कहने और नाम देने में साम्प्रदायिकता को बढ़ावा मिलता है।


भारतीय भाषाओं के स्थल -

भारतीय भाषा के प्रकाशकों ने अपने प्रकाशनों को हैसियत के अनुसार स्टैंड' अथवा स्टॉल लेकर प्रदर्शित किया हुआ था। पुस्तकों के रंगीन तथा आकर्षक आवरण तथा नाम देखकर हम लोग पुस्तक उठाते, उसे उलटते-पलटते और अच्छी लगती तो खरीदे लेते। एक चीज बिना माँगे मिल रही थी-प्रकाशकों के सूची-पत्र। इस मंडप से हमने 5-6 निबन्धों की तथा 4-5 सामयिक विषयों की पुस्तकें खरीदीं।

इस मंडप को देखने में समय लगा। पिताजी के मिलने माताजी की शिष्याएँ, बहिन के सहपाठी और मेरे मित्र मिले। मिलने पर चेहरे मुस्करा, उठते। किसी से हाथ मिलाकर, कभी हाथ जोड़कर, कभी चरण-स्पर्श कर अभिवादन करते। एक-दो मिनट गपशप करते।


भारतीय संस्कृति और सभ्यता का नमूना -

यह मंडप भारतीय संस्कृति और सभ्यता का नमूना था। वेश-भूषा, आचार- व्यवहार, बोलचाल के सभी रूप और रंग इस मंडप में देखने को मिलते थे। बंगाल, मद्रास, महाराष्ट्र, पंजाब तथा उत्तरी भारत की नारियों को धोती बाँधने और ओढ़ने में विविधता देखकर लगा सचमुच हम भारतीय हैं । यहाँ विविधता में भी एकरूपता के दर्शन हुए।

एक बात बताना मैं भूल गया । जिस-जिस स्टैंड या स्टॉल पर बच्चों की पुस्तकें प्रदर्शित थीं, वहाँ भीड़ भी अधिक थी और बिक्री भी। सर्वाधिक भीड़ 'डाइमंड पब्लिशर्स ' या “चिल्ड्न बुक ट्रस्ट' के स्टॉल पर थी। बच्चों के लिए बहुरंगी पुस्तकें, किन्तु बहुत सस्ते मूल्यों में, ये दो ही प्रकाशक बेच रहे थे। वैसे भी, यह मेला बाल-साहित्य को समर्पित था। एक हॉल में बाल-साहित्य की भव्य प्रदर्शनी देखते ही बनती थी। दो घंटे की चहल-कदमी से हम लोग थक गए थे। इसलिए थोड़ी देर के लिए हॉल से बाहर खाने-पीने के परिसर में पहुँचे। गरम-गरम कॉफी पी। समोसे और गुलाबजामुन खाए। थोड़ा विश्राम किया।


अंग्रेजी मंडप में पर्याप्त भीड़ -

अब हम गए अंग्रेजी-मंडप में। अंग्रेजी-मंडप में पर्याप्त भीड़ थी। कलात्मक दृष्टि से भारतीय प्रकाशनों से सहस्रों गुणा अधिक सौन्दर्यपूर्ण पुस्तकें। बच्चों के लिए बहुरंगी और बढ़िया पुस्तकें देखकर तो मन ही नहीं भरता था। माताजी बार-बार कहती थीं, 'बेटा जल्दी करो।' पर में जल्दी तो शरीर से कर सकता था, मन तो पुस्तकों में अटका था। यहाँ हमने 15-20 पुस्तकें खरीदीं। पिताजी ने अद्यतन विषयों अर्थात्‌ करेण्ट टॉपिक्स पर तथा माताजी ने शिक्षा मनोविज्ञान पर दो-चार पुस्तकें खरीदीं।

अंग्रेजी मंडप में अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त अन्य विषयों की बहुत पुस्तकें देखीं। इस मंडप की विशालता, साज-सज्जा, प्रकाशकों के परिधान, बातचीत का ढंग, खरीदी गई पुस्तकें बढ़िया लिफाफों में डालकर देने की पद्धति, सूची-पत्रों की अपेक्षाकृत विशालता देखकर लगा कि कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली। एक ओर भारतीय भाषा मंडप की दरिद्रता और खरीददारों का अभाव तथा दूसरी ओर, अंग्रेजी मंडप की शान-शौकत, चहल-पहल और खरीददारी।


उपसंहार -

शाम 7.30 बज चुके थे। चल-चलकर पैर जवाब दे चुके थे, परन्तु मन देख-देखकर नहीं भर रहा था, उसकी तमन्ना थी, और देखा जाए। 'समरथ को नहिं दोष गुसाईं।' मन को झुकना पड़ा । हम बाहर निकल आए। भाई-बहन पुस्तकों के पैकिट उठाए हुए थे, तो माताजी-पिताजी सूचीपत्रों का ढेर और फिर कुछ देर बाद हम घर पहुंच गए।


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