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रूपरेखा : प्रस्तावना - भारत की आंतरिक स्थिति - विद्यार्थी का कर्तव्य - छात्र का कर्त्तव्य मात्र विद्या अध्ययन नहीं - असामाजिक तत्त्वों के विरुद्ध समाज में जागरूकता लाना - विद्यार्थी का कर्तव्य शारीरिक विकास करना - विद्यार्थी का कर्तव्य बौद्धिक विकास करना - विद्यार्थी का कर्तव्य मानसिक विकास करना - साम्प्रदायिकता से दूर रहना - उपसंहार।
परिचय | विद्यार्थी का कर्तव्य की प्रस्तावना | आज के विद्यार्थी का कर्तव्य -इस संसार में सारा जीवन मनुष्य कुछ-कुछ सीखता रहता है, पर जीवन के जिस काल में जो स्कूल-कॉलेज जाते है उन्हें विद्यार्थी कहते है और जीवन के जिस काल में हम स्कूल-कॉलेज में जाकर विद्या ग्रहण करते हैं, उसे विद्यार्थी जीवन कहा जाता है। शिक्षा-प्राप्ति का यही काल भावी जीवन की नींव होता है। जो व्यक्ति विद्यार्थी जीवन में अपने अध्ययन-मनन में दत्तचित्त हो जितनासफल होता है, उसका भावी जीवन भी उतना ही पूर्ण और सफल होता है। यही वह समय है जब भले या बुरे प्रभावों की जड़ें जमायी जा सकती हैं। अतः इस काल में विद्यार्थी को बहुत जागरूक रहकर विद्यालय से सम्बन्धित तथा अन्य प्रकार के अपने कर्तव्यों पर दृढ़ रहने की आवश्यकता रहती है।
भारत की आंतरिक स्थिति वर्तमान में शोचनीय है और विश्व वातावरण भी इसके प्रतिकूल है। यहाँ कानून और व्यवस्था चौराहे पर आँधे मुँह पड़े सिसक रहे हैं। आतंकवादियों और समाज-द्रोही तत्त्वों के वर्चस्व ने भारतीय जीवन को आतंकित तथा मूल्यहीन कर दिया है। भारतीय नागरिक के जीवन का मानों कोई मूल्य ही नहीं। दूसरी ओर, महँगाई की मार इतनी जबर्दस्त है कि वह भारतीय जीवन को भूखा और बेबस बनाने पर तुली है। राष्ट्रीय के लोग स्वार्थ के पंक से उभर नहीं पाते। उभरें तब, जब उन्हें देश-हित नजर आए।
राष्ट्र की इन अस्वस्थ परिस्थितियों में विद्यार्थी का कर्तव्य क्या हो सकता है ? क्या उसका कर्तव्य केवल अध्ययन करना और देश की विषम स्थिति से आँखें मूँद लेना है? क्या विद्यार्थी का कर्तव्य समाज-द्रोही तत्त्वों और आतंकवादियों से निपटना है ? क्या विद्यार्थियों का कर्तव्य देश की महँगाई को रोकना है ? कदापि(बिलकुल भी) नहीं। जिस दिन देश का विद्यार्थी इन विषमताओं (अन्याय) के विरुद्ध कमर कसकर खड़ा हो गया अर्थात उन सभी के खिलाफ लड़ने के लिए तो समझ लीजिए, भारत गृह-युद्ध की अग्नि में जलकर भस्म हो जाएगा और उसका अर्थव्वयस्था डगमगाने लगेगा। उदाहरण के तौर पे ये कह सकते है कि, सिर दर्द दूर करने के लिए सिर कटाने का उपाय असंगत (गलत) है। विद्यार्थी का यह कर्तव्य समंदर से पानी खाली करने के समान होगा।
दूसरी ओर, देश की विषम स्थिति की अवहेलना करके मात्र अध्ययन को ही कर्तव्य समझना भी छात्र की भूल है, यह राष्ट्रीय आचरण के विरुद्ध है। आँख मींच लेने से कबूतर बिल्ली से बच तो नहीं पाएगा। बम के विस्फोट में या आतंकवादियों की अंधाधुंध गोली वर्षा में मरने वाला स्वयं विद्यार्थी भी हो सकता है और उसके परिवार-जन भी । कीचड़ से बचकर यदि कोई चले भी तो तेज चलने वाले वाहन उसके वस्त्रों को मैला तो करेंगे ही। इसलिए विद्यार्थियों द्वारा विद्याध्ययन का काम अबाध गति से चलता रहे, यही विद्यार्थी का प्रथम कर्तव्य है।
विद्यार्थी विद्या के निमित्त अपने को समर्पित समझे, यह उसका दूसरा कर्तव्य है। नियमित रूप से कक्षाओं में जाए। एकाग्रचित होकर गुरु द्वारा पढ़ाये पाठ को सुने, घर से करके लाने को दिए कार्य की पूर्ति पर बल दे। पढ़ाए गए पाठ का चिन्तन-मनन करे। अधिकाधिक अंक प्राप्ति के लिए निरन्तर अध्यवसाय करना अपना कर्तव्य माने। वर्तमान भारत में राजनीतिज्ञों, नव धनाढूयों, तस्करों और असामाजिक तत्त्वों का बोलबाला है। ये सभी कानून की पकड़ से दूर हैं, पुलिस स्वयं इनकी रक्षक है । इसलिए यथासम्भव इनसे बचना चाहिए, ये तत्त्व शिकायतकर्ता विद्यार्थी को जीवन-दान दे देंगे, यह नामुमकिन है। ऐसी परिस्थिति में विद्यार्थी दूरभाष के सार्वजनिक केन्द्र से या सक्षम अधिकारी को अनाम पत्र लिखकर इसकी सूचना तो दे ही सकता है। सम्पादक के नाम गलत नाम से पत्र लिखकर उस देखी घटना को सार्वजनिक तो कर ही सकता है। विद्यार्थी भी समाज का वैसा ही अंग है जैसे अन्य नागरिक। समाज की उन्नति में ही उसकी भी उन्नति है। इसलिए वह समाज-विरोधी तत्त्वों से सचेत रहे। आभूषण छीनते बटमार को पकड़कर पुलिस को थमा दे । किसी स्थान पर कोई सन्देहास्पद वस्तु देखता है तो पोलिस से संपर्क करें। यहाँ तक तो विद्यार्थी को अपना कर्तव्य समझना चाहिए।
विद्यार्थी जीवन में विद्यार्थियों का शारीरिक विकास करना अधिक महत्वपूर्ण है तथा उनका कर्तव्य है। विद्यार्थी को शारीरिक विकास और स्वास्थ्य की रक्षा के लिए सतत प्रयत्न करना चाहिए। व्यायाम, खेलकूद और मनोरंजन के द्वारा उसे शरीर को तंदरुस्त एवं स्वस्थ बनाना चाहिए। उन्हें आलस्य छोड़कर सब काम नियमपूर्वक करने चाहिए। शारीरिक विकास के लिए यह आवश्यक है कि छात्र का पहनावा और जीवन सादा हो, खान-पान सात्त्विक हो, हल्का और नियमित हो तथा दैनिक कार्यक्रम में पर्याप्त श्रम हो । मादक द्रव्य, अनियमितता तथा आलस्य शारीरिक विकास के शत्रु हैं। विद्यार्थी को यथा सम्भव अपने कार्य स्वयं करने चाहिए जिससे उसमें स्वावलम्बन और आत्मविश्वास की भावना जागृत हो। यही भावनाएं जीवन की पूंजी और उन्नति की सीढ़ी हुआ करती है। इसीलिए विद्यार्थी का कर्तव्य है कि उन्हें अपना शारीरिक का ध्यान देना होना।
विद्यार्थी जीवन में विद्यार्थियों का बौद्धिक विकास करना अधिक महत्वपूर्ण है तथा उनका कर्तव्य है। बौद्धिक विकास के लिए विद्यार्थी का मुख्य साधन शिक्षा-प्राप्ति है। पुस्तकीय ज्ञानार्जन तो आवश्यक है ही, साथ ही विद्यार्थी को व्यवहारनिपुण भी होना चाहिए। विद्यार्थी को सारा जीवन जिस समाज में व्यतीत करना है, उसके साथ व्यवहार करना भी एक कला है, जो सीखने से आती है। इस उद्देश्य से विद्यालय में अनेक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है, यथा-सहकारी दुकान, स्कूल, बैंक, ऐतिहासिक यात्राएँ, बाल-सभा में वाद-विवाद, भाषण व अभिनय, रेडक्रॉस, सैनिक शिक्षा आदि। विद्यार्थी को चाहिए कि ऐसे विविध कार्यों में बढ़-चढ़कर भाग ले। व्यावहारिक शिक्षा के साथ-साथ विद्यार्थी को अध्ययनशील भी होना चाहिए। पाठ्यक्रम के अतिरिक्त पुस्तकालय की पुस्तकें भी पढ़नी चाहिए, यथा-कथा-कहानियाँ, जीवनियाँ, यात्रा-विवरण, विश्व-परिचय की पुस्तकें, विज्ञान-प्रगति, उपन्यास, निबन्ध, महापुरूषों की जीवनियाँ तथा अन्य मनोरंजक सामग्री आदि। इनसे जो ज्ञान और अनुभव प्राप्त हुआ करता है, वह पाठ्यक्रम पढ़कर परीक्षा पास करने से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हुआ करता है। पाठ्यक्रम तो मात्र डिग्रियाँ दिलवा पाते हैं। व्यावहारिकता तो अन्यान्य विषयों के अध्ययन-मनन से ही प्राप्त हुआ करती है। इसीलिए विद्यार्थी का कर्तव्य है कि उन्हें अपना बौद्धिक ज्ञान का ध्यान देना होना।
विद्यार्थी जीवन में विद्यार्थियों का मानसिक विकास करना अधिक महत्वपूर्ण है तथा उनका कर्तव्य है। विद्यार्थी का मानसिक विकास अच्छे गुणों से होता है। इसे नैतिकता या चरित्र-निर्माण भी कहते हैं। चरित्र एक व्यापक शब्द है, जिसके अन्तर्गत वे सभी गुण आ जाते हैं जो किसी भी व्यक्ति में होने चाहिए, यथा-ब्रह्मचर्य, गुरुओं के प्रति नम्रता, साथियों से प्रेमभाव, सत्य,सभ्यता, शिष्टाचार, मितव्ययता, सत्संगति, देश-प्रेम राष्टीयता आदि। इन सब गणों की प्राप्ति का उपाय है अनुशासन। विद्यार्थी को अपनी आन्तरिक प्रेरणा से स्वयमेव भले कार्यों में संलग्न रहना चाहिए। यदि डण्डे से डरकर नियम का पालन किया तो क्या लाभ? विद्यार्थी को समझ लेना चाहिए कि जीवन का एक-एक क्षण अमूल्य है। इसीलिए विद्यार्थी का कर्तव्य है कि उन्हें अपना मानसिक ज्ञान का ध्यान देना होना।
आज भारतीय समाज साम्प्रदायिकता और जातीयता की आग की लपटों में झुलस रहा है।उसका एकमात्र हल है, मानव मात्र में अपनी ही आत्मा के दर्शन। मानव की समानता का बोध। विद्यार्थी जीवन में यदि व्यक्ति में यह भाव जागृत हो जाए तो साम्प्रदायिकता की जड़ ही उखड़ जाएगी। अत: विद्यार्थी का कर्तव्य है कि वह अपने सहपाठियों में जातिवाद, वर्गवाद, प्रान्तवाद, सम्प्रदायवाद की दुर्गन्ध को न फैलने दे। भ्रातृत्व की सुगन्ध से अपने विद्यालय के वातावरण को सुगन्थित रखे।
विद्यार्थी-जीवन विद्या प्राप्ति का काल है | विद्या का अधिकाधिक उपार्जन करना छात्र जीवन का लक्ष्य है । इसके लिए उसे किताबी कीडेपन से ऊपर उठना होगा। ज्ञान की ज्योति जिस ओर से आए, उसका अभिनन्दन करना होगा। समाचार-पत्र, पत्रिकाओं, टी.वी. देखना और रेडियों से नई जानकारी प्राप्त करना उसका कर्तव्य है | इसी प्रकार देश-विदेश की गतिविधियों की जानकारी प्राप्त करना भी उसका फर्ज है। विद्यार्थियों का कर्तव्य है कि वे अपना शारीरिक, बौद्धिक और मानसिक विकास पर ध्यान दें क्योंकि वही विद्यार्थी को भविष्य में सफल जीवन देता हैं।
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