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रूपरेखा : प्रस्तावना - विश्व की भयंकर समस्या - हमारी न्याय प्रक्रिया में त्रुटियाँ - अस्सी के दशक से भारत में आतंकवाद - अहिंसा से समस्या का समाधान - उपसंहार।
परिचय | आतंकवाद की समस्या की प्रस्तावना -आतंकवाद हिंसा का एक ऐसा गैर कानूनी तरीका है जो लोगों को डराने के लिए आतंकवादियों द्वारा प्रयोग किया जाता है। आज, आतंकवाद एक सामाजिक मुद्दा बन चुका है। आज इसका इस्तेमाल आम लोगों और सरकार को डराने-धमकाने के लिए हो रहा है। बहुत आसानी से अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए तथा अपनी बात मनवाने के लिए विभिन्न सामाजिक संगठन, राजनीतिज्ञ और व्यापारिक उद्योगों के द्वारा आतंकवाद का इस्तेमाल किया जा रहा है। लोगों का समूह जो आतंकवाद का समर्थन करते हैं उन्हें आतंकवादी कहते हैं। आतंकवाद को परिभाषित करना आसान नहीं है क्योंकि उन्होंने अपनी जड़ें बहुत गहराई तक जमायी हुई है। आतंकवादियों के पास कोई नियम और कानून नहीं होती है। यह लोग समाज और देश में आतंक के स्तर को बढ़ाने और उत्पन्न करने के लिए केवल हिंसात्मक गतिविधियों का सहारा लेते हैं।
आतंकवाद आज पूरे विश्व की एक समस्या बन चुका है और विश्व के सभी देश आतंकवाद और उग्रवाद की विभीषिका से मुक्ति तो पाना चाहते हैं, मगर अभी तक कोई उचित मार्ग नहीं मिल पाया। अमेरिका जैसे समृद्धशाली देश भी जहाँ राष्ट्रपति की हत्या सम्भव हो सकती है तो शेष विकासशील देशों में यदि आतंक का बोल बाला हो रहा है तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं कही जा सकती। जर्मन, जापान, अरब देश, इराक और ईरान, श्रीलंका आदि अनेक देश इसी आतंक के दावानल से पीड़ित हैं।
भारत देश में भी आतंक का साया पिछले एक दशक से इतना विकराल रूप धारण कर चुका है कि अब देश का प्रत्येक नागरिक भयभीत-सा लगता है कि पता नहीं कब कहाँ से गोली चले और हँसते-खेलते परिवार को लील ले। यह भी अनुमान नहीं लगता कि कब कहाँ बम विस्फोट हो जाये और अनेक निर्दोष लोग मौत की गोद में सो जायें ।
सन 1948 में महात्मा गाँधी को हत्या भी इसी आतंकवाद की श्रेणी में यदि मान ली जाये तो कोई अतिशयोक्ति न होगी । वर्ष 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी की हत्या और उसके बाद एक विशेष समुदाय की सामूहिक हत्याएँ, आगजनी, लूटमार यह सभी कुछ तो आतंकवाद की ही देन है। वर्ष 1991 में पूर्व प्रधानमंत्री श्री राजीव गाँधी की हत्या भी देश में बढ़ते आतंकवाद का ही परिणाम है। इस दिशा में हमारे विधान में भी कुछ त्रुटियाँ हैं कि हमारी दण्ड-प्रक्रिया में लचीलापन है जिस कारण व्यवस्था और प्रशासन को भी विवशता का मुँह देखना पड़ता है । मुझे याद है कि मैंने समाचार-पत्रों में पढ़ा कि आज भी कुछ मुस्लिम देशों में चोरी करने वालों के हाथ काट दिये जाते हैं। बलात्कारी पर सरेआम कोड़े बरसाये जाते हैं।
यदि हमारे देश में भी दण्ड प्रक्रिया के सुधार किया जाये और अपराधी को अपराध सिद्ध होने पर उसे अविलम्ब दण्ड दिया जाये, रंगें हाथों पकड़े गये अपराधी को उसी क्षण सजा दी जाये तो सम्भवत: देश की धरा से आतंक समाप्त हो सकता है। डॉ. रुबिया के अपहरण पर कश्मीर ने पाँच उग्रवादी छोड़ने की बात जब सरकार के समश्ष रखी जो सरकार ने आतंकवादियों के समक्ष घुटने टेक दिये। इस प्रकरण से देशभर में आतंक और उग्रवाद को अधिक बल मिला। परिणाम स्वरूप सारा देश फिर आतंक की चपेट में आ गया। यदि सरकार जरा संयम और कठोरता से काम लेती तो सम्भवत: डॉ. रुबिया भी स्वतन्त्र हो जातीं और उम्रवादी भी जेल में ही रहते। मगर हमारे नेता देश का भला नहीं अपनी कुर्सी का भला चाहते हैं।
सन 1980 से समूचा देश आतंकवाद की चपेट में है और इस दशक में चार प्रधानमंत्रियों ने कार्य किया मगर आतंकवाद पर काबू न पाया जा सका। देश का एक छोर दूसरे छोर से प्राय: कटा-सा लगने लगता है जो आतंक का ही प्रभाव है। आतंक और उग्रवाद से मुक्ति पाने के लिए जन-जन के अन्तर्मन में विशेष मनोबल की आवश्यकता है और प्रत्येक व्यक्ति को मानना होगा कि 'अहिंसा ही परोधर्म है।' अहिंसा के मार्ग पर चलने के लिए हर एक को प्रेरित करने की आज महती आवश्यकता भी है। भगवान बुद्ध ने सारे देश में और विदेशों में भी अहिंसा का उपदेश दिया और साथ कहा कि किसी को सताओ मत, किसी की हिस्सा मत छीनो। भगवान महावीर ने भी 'अहिंसा परमोधर्म' का महामंत्र दिया, साथ ही यह भी बताया कि 'जियो और जीने दो' अर्थात सभी को जीने का बराबर अधिकार है। 'जीव हत्या पाप है' का उद्घोष भी किया गया।
इन सभी बातों का यहाँ उल्लेख करने का अभिप्राय केवल यही है कि यदि मानव अहिंसा का पालन करेगा तो हत्याओं से छुटकारा मिलेगा। देश को बढ़ते आतंकवाद से मुक्ति भी मिलेगी। इस आतंक से मुक्ति पाने के लिए मानव जाति को एकजुट होकर आतंकवादियों से टक्कर भी लेनी पड़ सकती है। प्यार के दो बोल, पत्थर जैसे विशाल हृदय को भी नम बनाने की क्षमता रखते हैं । जो लोग आतंक को बढ़ा रहे हैं वह भी आखिर इंसान ही है। मगर कुछ क्षण के लिए उन पर शैतान का भूत सवार हो चुका है जो केवल आपसी भाइचारे और प्रेम के मीठे बोल से ही दूर भी किया जा सकता है।
जलती हुई आग को ठंडा करने के लिए पानी या रेत की आवश्यकता होती है। यदि आंग लगने पर उसमें घी या तेल डाला जायेगा तो वह आग और ज्यादा ऊँची उठेगी। इसी प्रकार आतंकवाद से मुक्ति के लिए हमें सरकार पर आश्रित न रहकर सामाजिक स्तर पर भी उपाय करना है। सरकार तो गोली का उत्तर गोली से दे सकती है। अगर आतंक मचाने वालों को पास बिठाकर उनसे बात की जाये तो मेरा दावा है कि विश्व की कोई भी समस्या ऐसी नहीं है जो आपसी बातचीत से हल न हो सके । बड़े-बड़े विनाशकारी युद्धों के पश्चात जैसे युद्ध-कर्त्ता शान्ति की ओर भागते हैं बैसे ही खूँखार आतंकवादी भी प्यार से बात करने पर शान्ति की ओर अग्रसर हो सकते हैं आवश्यकता केवल विवेक और सामजंसस्य बनाने की हैं। जिसके लिए राजनेताओं की नहीं समाज सुधारकों कौ ही आवश्यकता है।
जिस प्रकार राजा राममोहन राय ने अपने अकेले दम पर सतीप्रथा को रोक दिया था आज ठीक उसी प्रकार आतंकवाद के बढ़ते चरण को रोकने के लिए राजा राममोहनराय जैसे विवेकशील और समृद्धिशाली प्रतिभा कौ आवश्यकता है। पूरे समाज का मैं, आप तथा कोई भी व्यक्ति आगे आकर इस समस्या का समाधान खोज सकता है, इसके केवल आत्मबल और निष्ठा की भरपूर आवश्यकता है । इस देश में आतंक अपने ही लोगों ने मचाया है और अपने लोगों को प्यार और शान्ति की बात बताकर समझाया जा सकता है। इस कार्य के लिए न तो सेना चाहिए और न ही कोई दल-बल चाहिए। इसके लिए गौतम, गाँधी और नानक जैसा दिशा-निर्देशक चाहिए।
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