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रूपरेखा : मानव जीवन का स्वर्णिम बल - मेरा गाँव - मेरा परिवार - बचपन की घटनाएँ - बचपन की शरारतें - बचपन की स्मृतियाँ।
मानव जीवन का स्वर्णिम बल -बचपन ही मानव-जीवन का स्वर्णिम काल होता है। चिंता रहित जीवन, स्वतंत्र जीवन, एवं भयविहीन कहीं भी घूमना फिरना, जो हाथ में आया खा लिया, अँगूठा चूसने में मधु का आनंद आना और दूध के कुल्ले पर किलकारी भरने में उल्लास की अनुभूति, रोकर-मचलकर, बड़े-बड़े मोती आँखों से बहाकर माँ को बुलाना एवं झाड़ पोंछकर हृदय से चिपका लेना, आदि कई ऐसे स्मृतियाँ है | बचपन ही वो काल है जब ना हमे कोई पढ़ने के लिए कहता है और नाही हमे भविष्य की चिंता रहती है। बचपन मानो स्वर्ग का एक नगरी है जहाँ से हमे निकलने का मन ही नहीं करता। बचपन ही वो समय होता है जहाँ हमे कोई रोक-टोक नहीं करता। पूरी दुनिया एक तरफ और हम एक तरफ होने लगते है। चिंता मुक्त जीवन ही बचपन का सरल अर्थ है।
वर्तमान बिहार के एक छोटे से गाँव मधुबनी में, जिसने औद्योगिक विकास के साथ-साथ तहसील से जिले का रूप ले लिया है, मेरा बचपन बीता। मेरे गाँव की सुंदरता का कोई वर्णन नहीं किया जा सकता। मेरे गाँव में चारों और वृक्ष की हरयाली नजर आती है। गाँव में एक विशाल तालाब देखने को मिलता है। गाँव में आधा प्रतिशत जमीन खेतो से ढका रहता है जहाँ अन्य का खजाना उगता है। गाँव के नदी का तो कोई जवाब नहीं जहाँ की पानी की पवित्रता वहा के लोगों को लम्बी आयु प्रदान करती है। गाँव में करीब हर घर में एक पालतू पशु रहता है जिससे मेरे गाँव के अधिकतर लोगों का घर चलता है।
मेरे परिवार में माँ, पिताजी, दादाजी, और एक बड़ा भाई है । सभी मेरा बहुत ध्यान है। पिताजी देश की मायानगरी मुंबई में कार्य करते थे। बाबा (दादाजी ) गाँव के एकमात्र सलाहकार थे। मेरा परिवार बड़ा ही सरल है और उतना ही सरल हमारा जीवन है। मेरा घर का आँगन कच्चा था। वही पीली मिट्टी का आँगन मेरी क्रीडा-स्थली थी।
एक बार भाई ने स्नेह से गोदी में लेने का प्रयास किया। उनके हाथ मारने की बचपन की आदत होती थी। मैं चारपाई पर पड़ा रो रहा था। वे खुश हो रहे थे। समझ रहे थे, उनको छेड़-छाड़ मुझे आनंद कर रही है इसीलिए उन्होंने थोड़ा और जोर लगाया । वे मुझे सँभाल न सके और मैं चारपाई से नीचे गिरा और चीख मारकर रो पड़ा। माँ को निमन्त्रित करने का सहज और सरल उपाय यही था। माँ दौड़ी आई और पीली मिट्टी में सने मेरे शरीर को गोदी से चिपका लिया। भैया को डाँटा। पीट सकना उनके वश की बात नहीं थी। कारण, भैया भी शिशु थे और थे माँ के इृदयांश। यद्यपि परिवार मध्यवर्ग था, किन्तु दूध- दही की कमी न थी। हम भोजन में अति कर जाते थे। परिणामत: पेट में अफारा और दूध उलट देना स्वभाव वन गया था। घर के टोटके औषधि का रूप लेते। ममतामयी माँ समीप बैठी टुकुर-टुकुर निहारती और अपने लाल के अच्छा होने की प्रतीक्षा करती हुई प्राथना करती। घुटनों से चलते समय महल का पीली मिट्टी का प्रांगण हमारी दौड़ का मैदान बना। अड़ोसी-पड़ोसी समवयस्क बच्चों के मध्य एक-दूसरे को हाथ मारने में आनंद आता था। एक बार हमने सामने वाली ताई के बच्चे को वह हाथ मारा कि वह चिल्ला उठा। ताई दौड़ी आई और अपने बच्चे को गोद में उठा लिया और क्रोध में मुझे एक चपत रसीद कर दी। मार लगते ही हमने भी रोना शुरू कर दिया। उधर माँ ताई की करतूत देख रही थी। बस फिर माँ ने हमें गोद में लिया और लगी ताई से झगड़ने। सचमुच, बचपन की घटनाएं आज भी याद आती है तो आखों से ख़ुशी के आसूं निकलने लगते है।
जब हम कुछ बड़े हुए। चलना प्रारम्भ किया तो बच्चों से यारी-दोस्ती बढ़ी । परिचय का क्षेत्र घर से बाहर निकल कर गली तक पहुँच गया। बाबा के दो फुट ऊँचे चबूतरे पर चढ़ना हिमालय पर चढ़ने से कम न था। चढ़ने की कोशिश में गिरते और रो-रोकर पुनः चढ़ने का प्रयास करते थे। गली की बिल्ली और कुत्ते हमारे लिए शेर और चीते थे। गली का कुत्ता यदि जीभ निकालकर हमारे पीछे चलने लगता तो हमारी घिग्घी बंध जाती और नन्हें कदमों की दौड़ से घर में घुस जाते। हमारे गाँव में बन्दर बहुत थे। एक दिन गली में चहल-कदमी कर रहा था कि अचानक तीन-चार बन्दर आ गए लगे मुझे घूरने, घूर-घूर कर धमकी देने | आँखों ने यह दृश्य देखा, तो मुँह से जोर से जिख निकली, हृदय-गति तेज हो गई, नयनों ने नीर बरसाना शुरू कर दिया, हाथ-पैर काँपने लगे। चीख सुन पड़ोसिन आई और उसने बन्दरों को डंडे दिखाकर भगा दिया। कुछ समय बाद फिर मेरे जान में जान आयी और फिर ऐसे प्रतीत करने लगा जैसे कुछ हुआ ही नहीं। क्यूंकि बचपन में अगर हम डरते हुए दिख जाते है किसी मित्र को फिर बस उनका चिड़ाना कई दिनों तक चलता ही रहता है।
बचपन की कई यादें आज भी मुझे याद आती है। याद कर के मैं अपने माँ के गोदी में सर रख के बचपन की किस्से पर चर्चा करने लगते है। वो बन्दर से दर जाना, ताई से मार खाना, बाबा के दो फुट ऊँचे चबूतरे पर चढ़ना, आदि कई यादें मुझे बचपन में लौट आने के लिए कहती है। अगर भगवान् जी मुझे पूछते की मुझे क्या चाहिए तो उन्हें में फिरसे मुझे बचपन में भेज देने का आग्रह करता। सचमुच, बचपन सभी लोगों के लिए स्वर्णिम काल होता है।
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