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रूपरेखा : प्रस्तावना - सह शिक्षा का अर्थ - युवक-युवतियों का एक साथ पढ़ना - सह शिक्षा का महत्व - सह शिक्षा की विशेषताएं - प्राथमिक शिक्षा में अध्यापिका की भूमिका - सह शिक्षा आज की आवश्यकता - सह शिक्षा के फायदे - सहशिक्षा के नुकसान - उपसंहार।
प्रस्तावना / सह शिक्षा की प्रस्तावना / सहशिक्षाविद्यालय के एक ही कक्ष में एक ही श्रेणी में बालक-बालिकाओं, युवक-युवतियों, लड़के-लड़कियों का साथ-साथ शिक्षा ग्रहण करना 'सहशिक्षा' है। पाद्यक्रम, अध्यापक तथा कक्ष को एकता में छात्र-छात्राओं का शिक्षार्थ गमन 'सहशिक्षा' है। सहशिक्षा का शाब्दिक अर्थ है साथ-साथ शिक्षा ग्रहण करना अर्थात् लड़के-लड़कियों को एक साथ शिक्षा देना। सहशिक्षा एक आधुनिक शिक्षा प्रणाली है और पश्चिमी देशों से भारत में आई है। कुछ लोगों का मत है कि वैदिक काल से ही सहशिक्षा का प्रचलन चला आ रहा है। मध्यकाल में सहशिक्षा कम हो गई थी। परिणामतः महिलावर्ग में शिक्षा का पूर्ण अभाव हो गया। उसके बाद अंग्रेजी शासन में पुनः सहशिक्षा प्रारंभ हुई। आधुनिक युग में जहां लड़कियां हर क्षेत्र में लड़कों के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन कर सकने में सक्ष हैं, उन्हें शिक्षा के अधिकार से वचिंत नहीं रखा जा सकता।
विद्यालय के एक ही कक्ष में एक ही श्रेणी में बालक-बालिकाओं, युवक-युवतियों, लड़के-लड़कियों का साथ-साथ शिक्षा ग्रहण करने को 'सहशिक्षा' कहते है। सह-शिक्षा का अर्थ है एक ही स्कूल या कॉलेज में लड़कों और लड़कियों दोनों की शिक्षा देना। पुरुषों और महिलाओं को एक-दूसरे समझने के लिए ये शिक्षा एक महत्वपूर्ण अंग है । सहशिक्षा का मतलब है 'पाद्यक्रम, अध्यापक तथा कक्ष को एकता में छात्र-छात्राओं का शिक्षार्थ गमन करना।'
आर्य-समाज के प्रचार ने स्त्री-शिक्षा पर बल दिया तो अंग्रेजी - प्रचार ने सह-शिक्षा को प्रश्नय दिया। ज्यों-ज्यों भारत में पाश्चात्य संस्कारों का विकास होता गया, सहशिक्षा बढ़ती गई। परिणामत: आज का सभ्य-नागरिक प्राचीन रूढिगत विचारों से ग्रस्त होते हुए भी अपने बच्चों को सहशिक्षा दिलाने में कोई आपत्ति नहीं करता, उसे जीवन के विकास में बाधक नहीं मानता। हमारे देश में अनेक रूढ़िवादी लोग हमेशा से सहशिक्षा का विरोध करते चले आ रहे हैं परंतु समय के बदलाव और विज्ञान का योगदान से मनुष्यों को अपनी पुरातनपंथी सोच में बदलाव लाने का महती प्रयास किया है । सहशिक्षा का इतिहास हमारे देश के लिए नया नहीं है । प्राचीन काल के गुरुकुलों व आश्रमों में सहशिक्षा की प्रथा प्रचलित थी । उस समय में स्त्री और पुरुष को समान दृष्टि से देखा जाता था ।
सह-शिक्षा व्यक्तित्व, नेतृत्व विकास के साथ-साथ संप्रेक्षण क्षमता में सहायक है। वर्तमान युग में सह-शिक्षा आवश्यक है। सह-शिक्षा प्राप्त करने से विद्यार्थी अपने जीवन में अधिक सफल रहते हैं। उनका कहना है कि हम पुरुषों और महिलाओं को हर संभव तरीके से एक साथ काम कर रहे हैं। जहां एक ऐसे समाज में रह रहे हैं, तो हम बहुत शुरुआत यानी बचपन से एक की धारणा में इस माहौल विकसित करने की जरूरत है। सहशिक्षा से हमारे देश की अर्थ-व्यवस्था भी सुदृढ़ होगी। सहशिक्षा में लड़के-लड़कियों के लिए अलग-अलग विद्यालयों की आवश्यकता नहीं होगी, इससे बचे हुए पैसे को दूसरे कामों में लगाया जा सकता है जो कि सह शिक्षा के महत्व को दर्शाता है।
विश्व रूपी जीवन में नर-नारी दो एक पात्र हैं। विश्व रूपी रंगमंच पर नर-नारी दो ऐसे पात्र हैं, जिनके बिना जीवन रूपी नाटक का मंचन नहीं हो सकता है। प्रकृति और पुरूष के रूप में उससे सृष्टि विकास का क्रम के अनुसार दोनों आज भी निरंतर जीवन और गृहस्थ की गाड़ी के दोनों पहियों के समान एक-दूसरे के पूरक बन कर एक-दूसरे का साथ निभाते हैं। सहशिक्षा के प्रयोग से विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण धीरे-धीरे सामान्य हो जाता है । उनके अनुसार किसी चीज का लगातार उपयोग करने से उसके प्रति उदासीनता आ जाती है । अत: उदासीनता के कारण छात्रगण अपने अध्ययन अथवा भविष्य के प्रति अपनी ऊर्जा को अधिक केंद्रित कर सकते हैं । कुछ लोगों की धारणा है कि सहशिक्षा आर्थिक दृष्टि से बहुत अधिक उपयोगी है । लड़कों तथा लड़कियों के अलग-अलग संस्थानों के बजाय यदि एक ही संस्थान हो तो खर्च काफी कम किया जा सकता है । विशेष रूप से भारत जैसे देश में जहाँ आर्थिक स्थिति मजबूत न हो वहाँ सहशिक्षा बहुत अधिक उपयोगी है । कुछ अन्य लोगों की धारणा है कि छात्र-छात्राओं के एक ही संस्थान में अध्ययन से उनके बीच आपसी समझ बढ़ती है । यह आपसी समझ उनके गृहस्थ जीवन के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध होती है ।
प्राथमिक शिक्षा में अध्यापिका की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। परिवार से निकलकर विद्यालय के नए बातावरण में प्रवेश करने वाले शिशु के लिए अध्यापिका माता और शिक्षक का कर्तव्य निभाती है। यदि शिशु का विभाजन बालक या बालिका में करके अलग से शिक्षा का आयोजन किया गया तो पुरुषों के अध्यापन में न वह सहृदयता होगी, न उनमें बालक की प्रवृत्ति-परिवर्तन के लिए सिद्धता होगी जो एक अध्यापिका में होती है। सहशिक्षा छात्रों में प्रतिस्पर्धा लाती है। यहाँ छात्र-छात्राओं से और छात्राएँ छात्रों से आगे बढ़ने की प्रयत्न करते हैं। यह स्वस्थ प्रतिस्पर्धा उनके अध्ययन, चिंतन, मनन को बलवती बनाती है।
सहशिक्षा के पक्ष में बोलने वाले लोगों के अनुसार सह शिक्षा आज की जीवन के लिए आवश्यकता प्रतीत करती है। सहशिक्षा हमारे सामाजिक जीवन की प्रगति के लिए अत्यावश्यक है। सहशिक्षा से हमारे देश की अर्थ-व्यवस्था भी सुदृढ़ होगी। सहशिक्षा में लड़के-लड़कियों के लिए अलग-अलग विद्यालयों की आवश्यकता नहीं होगी, इससे समाज में लड़के-लड़कियों को एक समान होने का जागरूकता फैलेगा। इससे लोगों के अंदर लड़के-लड़कियों के लिए भेदभाव करने की बुरी आदत छूटेगी और देश में लड़के-लड़कियों को बराबर का अधिकार मिलेगा। इसीलिए आज के समाज को सहशिक्षा की अत्यंत आवश्यकता है।
सहशिक्षा के अनेक लाभ हैं। सहशिक्षा से लड़कियों में नारी-स्वभाव सुलभ लग्जा, झिझक, पर-पुरुष से भय, कोमलता, अबलापन, हीनभावना किसी सीमा तक दूर हो जाती है। दूसरी ओर, युवक नारी के गुणों को अपना लेता है। उसकी निर्लज्जता, अक्खड़पन, अनर्गलता पर अंकुश लग जाता है और उसमें मृदुभाषिता, संयमित संभाषण, शिष्ट आचरण तथा नारी-स्वभाव के गुण विकसित होते हैं। युवक-युवतियों में भावों का यह आदान-प्रदान भावी जीवन में सफलता के कारण बनेंगे। सहशिक्षा से छात्र-छात्राओं में परस्पर प्रतिस्पर्धा की भावना पैदा होगी और इससे उनका बौद्धिक विकास भी होगा। दोनों वर्ग एक दूसरे से आगे निकलने का प्रयास करेंगे। लड़के लड़कियाँ एक-दूसरे से झिझको, नहीं। इससे लड़कियों में व्यर्थ की लज्जा दूर होगी, जिससे पढ़ाई समाप्त होने पर वे नौकरी में लड़कों से बात करने पर शर्माएगी नहीं और लड़के पी लड़कियों के समक्ष अधिक संयम में रहना सीखेंगे। उन्हें नारी का सम्मान करते की प्रेरणा मिलेगी। जिससे आगे जाकर उनका वैवाहिक जीवन भी सफल होगा।
आज के विषाक्त वातावरण में सहशिक्षा का सहपाठी भाई-बहन की भावना के कम और प्रेमी-प्रेमिका की भावना से अधिक ग्रस्त होता है । सहपाठी का लावण्य उसे आकर्षित करता है, आकर्षण स्पर्श के लिए प्रेरित करता है। स्पर्श आलिंगन-चुम्बन की ओर अग्रसर होता है और अन्तत: छात्र कामवासना का शिकार होता है। न अध्ययन, न जीवन-विकास, उलटा चरित्र-पतन, विनाश की ओर गति। सहशिक्षा में अध्ययन में चित्त अशांत रहता है। युवतियाँ युवकों से दबी-दबी रहती हैं। घुटन के वातावरण में जीती हैं। अध्ययनशील और लज्जालु छात्र-छात्राओं की छाया से भी कतराते हैं । ऐसी स्थिति में मन की एकाग्रचितता कहाँ ? पढ़ाई की मन:स्थिति कहाँ ? प्राध्यापक प्रवचन की ग्राह्मता कहाँ? पाठ्य-क्रम तथा पादय-पुस्तकों में कभी-कभी कुछ ऐसे प्रसंग आ जाते हैं, जो नैतिकता के मापदंडों के विपरीत होते हैं । सहशिक्षा में उन प्रसंगों को स्पष्ट कर पाना बहुत कठिन होता है। ऐसी परिस्थिति में प्राय: शिक्षक उन प्रसंगों की उपेक्षा कर जाता है या अस्पष्ट रहते देता है। इस प्रकार सहशिक्षा ज्ञानवर्धन में बाधक भी है।
आज का भारतीय, चाहे वह किसी भी आर्थिक स्तर पर जीवनयापन कर रहा हो, पाश्चात्य-संस्कृति को लपकने के लिए लालायित है | भारतीय-संस्कृति में उसे पिछड़ेपनकी कमी आने लगी है। सहशिक्षा से शिक्षा व्यवस्था में खर्च की बहुत बचत होती हैं। अलग-अलग कक्ष, अध्यापक तथा प्रबंध व्यवस्था में जो दुहरा खर्च होता है, वह नहीं होता । इतिहास, भूगोल, गणित, कॉमर्स, चार्टर्ड एकाउन्टेंसी, कॉस्ट एकाउन्टेंसी, बिजनेस मैनेजमेंट, आयुर्विज्ञान, एल-एल.बी. आदि कक्षाओं में युवतियों की संख्या उँगली पर गिनने योग्य होती है। उनके लिए शिक्षा की अलग व्यवस्था करना शिक्षा को अत्यधिक महँगा बनाना है। कम विद्यार्थियों के लिए पृथक व्यवस्था कर ही नहीं पाएंगे। दूरदर्शन की कृपा, सरकार के सांस्कृतिक कार्यक्रमों के प्रोत्साहन देने तथा पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के भारतीय जीवन को प्रभावित करने के कारण सहशिक्षा की हिचक अब समाप्त हो रही है । युवक-युवती मिलन, घुट-घुट कर बातें करना, हँसी-मजाक करना, एक-दूसरे के घर बिना झिलक आना-जाना, सैर-सपाटे, शिक्षण-संस्थाओं द्वारा आयोजित “टूर” पर जाना सामान्य-सी बात होती जा रही है। पाश्चात्य संस्कृति जहाँ जीवन में चमक-दमक लाएगी, विलास और वासना के मानदंड स्वतः: बदल जाएंगे, तब सहशिक्षा किसी भी स्तर पर भारतीयता के विरुद्ध नहीं मानी जाएगी।
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