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रूपरेखा : प्रस्तावना - शिक्षक का स्थान ईश्वर के ऊपर - प्राचीन काल से गुरु का महत्व - छात्रों पर शिक्षक का प्रभाव - शिक्षक और छात्र का दायित्व - उपसंहार।
परिचय / शिक्षक और छात्र की प्रस्तावनाशिक्षक का छात्र जीवन में अधिक महत्व है। शिक्षक छात्र जीवन में वह व्यक्ति होता है, जो उन्हें अच्छी शिक्षा के साथ बहुत सी अन्य महत्वपूर्ण चीजों को सिखाता है। एक शिक्षक अपने विद्यार्थियों के लिए बहुत अधिक मायने रखता है। वह उनके जीवन में विकास की प्रारम्भिक अवस्था से हमारे परिपक्व होने तक बहुत अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वह उन्हें और उनके भविष्य को देश के जिम्मेदार नागरिक बनाने की ओर मोड़ देते हैं।
शिक्षक, अध्यापक, गुरु, टीचर और मास्टर ये कुछ शब्द हैं जो हमें शिक्षा के क्षेत्र में देखने और सुनने को मिलते हैं और इनके साथ ही विद्यार्थी, शिष्य, स्टूडैन्ट और चेला शब्द भी देखे और सुने जा सकते हैं। भारतीय परंपरा के अनुसार गुरु और शिष्य से बात प्रारंभ की जाये तो अच्छा रहेगा।
निष्ठावान शिक्षक ही छात्र के जीवन में सुधार सकता है और शिक्षक के द्वारा ही छात्र जीवन में शिखर को छू पाने में सफल हो सकता है । शिक्षक और छात्र दोनों के मन में भावना का होना अति आवश्यक है। एक ओर तो बेचारा शिक्षक पूरे मनोवेग से छात्रों को पढ़ाने का प्रयास करे और दूसरी ओर छात्रों का ध्यान अन्य बातों में लगा रहे तो न शिक्षक को हो पढ़ाने में आनंद आयेगा और न छात्रों का ही भला हो पायेगा।
छात्र को भी ज्ञान अर्जन के लिए सम्पूर्ण समर्पण भाव से ध्यान देने की ही आवश्यकता होती है, तभी जीवन में उन्नति प्राप्त हो सकती है। प्राचीनकाल में शिष्यों का समर्पण एक उदाहरण बनकर आज भी हमारे सम्मुख है। गुरु द्रोणाचार्य पांडवों को भनुर्विद्या में निपुण कर रहे थे और भोल का बालक एकलव्य गुर द्रोणाचार्य द्वारा पाण्डवों को सिखायी जा रही धनुष विद्या को दूर खड़ा देखा करता था। एक ही मन से द्रोणाचार्य को अपना गुरु स्वीकार लिया और वह भी धनुप का स्वत: ही अभ्यास करने लगा । पारंगत होने पर एकलव्य ने जब अपनी विद्या का प्रदर्शन किया तो द्रोणाचार्य ने एकलव्य से उसके गुरु का नाम जानना चाहा। तब एकलव्य ने बताया कि मैंने मन से आपको गुरु स्वीकार कर यह धनुप विद्या स्वयं हो सीखी है | इस पर गुरु दक्षिण में एकलब्य ने अपने सीधे हाथ का अँगूठा काटकर द्रोणाचार्य को गुरु दक्षिणा में भेंट कर दिया। यही नहीं मुनि वशिप्ठ और विश्वामित्र ने राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न को शिक्षित किया और संदीपन गुरु ने श्रीकृष्ण को ज्ञान के साथ- साथ सहज और सरल जीवन जीने का पाठ भी पढ़ाया । शिक्षक, गुरु या अध्यापक कुम्हार की भाँति कहे गये हैं, जिस प्रकार कुम्हार अपनों गीली मिट्टी को जो चाहे आकार देने में सक्षम होता है उसी प्रकार गुरु शिक्षक का अध्यापक अपने शिल्प को आकार दे सकता है। अरस्तू ने अपने शिष्य सिकन्दर को विश्व जीतने के लिए उकसाया तो चन्द्रगुप्त को चाणक्य ने शिक्षित करके देश का इतिहास ही बदल दिया।
छोटे बच्चे के मन पर अध्यापक का जैसा गहरा प्रभाव पड़ता है, वैसा किसी अन्य का नहीं पड़ता । इसलिए अध्यापक का आदर्शवान होना परम आवश्यक है। अध्यापक ही ऐसा एक केद्ध-बिन्दु है जहाँ से बौद्धिक परम्पराएँ तथा वैज्ञानिक और तकनीकी कुशलता एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को संचारित करती हैं । यह अध्यापक या शिक्षक ही होता है जो सभ्यता के दीपक को प्रज्ज्वलित करने में अपना योगदान करता है। शिक्षक, अध्यापक या गुरु व्यक्ति का मार्ग दर्शन ही नहीं करता, अपितु समूचे राष्ट्र का भाग्य निर्माता भी होता है।
शिक्षक यदि योग्य होगा तो छात्र भी योग्य ही बनेंगे। शिक्षक के व्यक्तित्व का प्रभाव छात्र पर निश्चित रूप से पड़ता है। चरित्रवान और नीतिवान अध्यापक के विद्यार्थी भी चरित्र और नीति में प्रवीण होंगे। शिक्षण, निरीक्षण, मार्गदर्शन, मूल्यांकन और सुधारात्मक कार्यों के साथ-साथ योग्य अध्यापक ही विद्यार्थियों, अभिभावकों और समुदाय से सदैव अनुकूल सम्बन्ध स्थापित करने के दायित्व को भी निभाता है। अध्यापक द्वारा शिक्षित छात्र जब परीक्षा में सफल होते हैं तो सबसे अधिक गर्व अध्यापक को ही होता है।
विद्यार्थी का कर्त्तव्य है कि वह गुरु के चरणों की धूल अपने मस्तक पर धारण करे, लेकिन आज के सन्दर्भ में यदि हम देखें तो इसका यह भी अर्थ है कि विद्यार्थी अपने अध्यापक का सम्मान करे। अध्यापक या शिक्षक का कार्य तो केवल शिक्षा देना है, मगर विद्यार्थी का कार्य अध्यापक से भी बढ़ कर होता है, विद्यार्थी या छात्र का यह दायित्व हो जाता है कि सम्मानपूर्वक वह शिक्षा को भी ग्रहण करे साथ ही शिक्षक का भी पूरा सम्मान करे । यह कटु सत्य है कि ताली बजाने के लिए दोनों हाथों की आवश्यकता पड़ती है । एक हाथ से कभी भी ताली नहीं बजायी जा सकती।
छात्र यदि विनप्र होगा तो वह अपने अध्यापक से अच्छी शिक्षा प्राप्त कर पाने में सक्षम रहेगा, लेकिन यदि छात्र उदण्ड है तो वह सदैव विरस्कृत ही होता रहेगा, इसमें हानि छात्र की होती है। अध्यापक ने जो भी शिक्षा देनी है वह सामूहिक रूप से सभी छात्रों को कक्षा में देगा और यह छात्रों पर निर्भर करता है कि वह उस, अध्यापक की शिक्षा को कितना ग्रहण कर पाते हैं । पूरी कक्षा में अध्यापक किसी भी छात्र से शिक्षा देते समय अर्थात पढ़ाते समय कोई भो भेदभाव नहीं रखते, फिर भी परीक्षा परिणाम में कुछ छात्र असफल हो जाते हैं, इसमें दोष उन छात्रों का है जिन्होंने मन लगाकर न तो अध्यापक की बात ही सुनी और न ही मन लगा अध्ययन, चिन्तन और मन ही किया। लेकिन किसी भी छात्र के असफल होने का दु:ख छात्र से अधिक अध्यापक को होता है, क्योंकि अध्यापक को मन-ही-मन यह लगता है कि शायद मुझसे छात्रों को ठीक प्रकार से बताने या समझाने में कोई कमी रह गयी है।
शिक्षक और छात्र का सम्बन्ध तो दूध और पानी की भाँति होता है, जैसे दूध में मिला पानी भी दूध ही कहलाता है उसी प्रकार एक अच्छे चरित्रवान शिक्षक का छात्र भी अच्छा चरित्रवान हो कहलाने का अधिकारी होता है। जहाँ अध्यापक का दायित्व छात्र को शिक्षा देना हैं, वही छात्र का भी कर्त्तव्य है अध्यापक द्वारा दी गयी उस महत्त्वपूर्ण शिक्षा को ग्रहण कर जीवन में उन्नति पाता हुआ सदैव शिखर पर पहुँच कर अपने अध्यापक, अपने परिवार, समाज और राष्ट्र के नाम को ऊँचा करने का गौरव प्राप्त करे।
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