आरक्षण का आधार पर निबंध

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रूपरेखा : प्रस्तावना - आरक्षण क्या है - आरक्षण किसे मिलना चाहिए - प्रथम आयोग का गठन - आरक्षण का प्रतिशत बढ़ता ही जा रहा हैं - मण्डल आयोग का गठन - मण्डल आयोग की सिफारिशें स्वीकार - मण्डल आयोग की त्रुटियाँ - आरक्षण का उद्देश्य - उपसंहार।

परिचय | आरक्षण का आधार की प्रस्तावना

भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद संविधान का जो प्रारूप तैयार किया गया उसमें अनुसूचित जाति एवं जन जाति के लोगों आरक्षण देने की विशेष व्यवस्था की गई थी। संविधान निर्माता जानते थे कि इस तरह की व्यवस्था देश के दीर्घकालीन हित में नहीं हैं, अतः उन्होंने आगामी दस वर्ष के लिए ही आरक्षण की व्यवस्था रखने की बात कही थी।


आरक्षण क्या है | आरक्षण का अर्थ क्या है | आरक्षण क्या होता है

आरक्षण (Reservation) एक ऐसा शब्द है, जिसका नाम हर किसी के मुह पर होता है, अर्थात आरक्षण भारत मे, हमेशा से बहुत चर्चा मे रहा है। वैसे तो हम, इक्कीसवी सदी मे जी रहे है और अब तक आरक्षण कि ही, लड़ाई लड़ रहे है। युवाओ और देश के नेताओ के लिये, आज की तारीख मे सबसे अहम सवाल यह है कि,

  • आरक्षण किस क्षेत्र मे, और क्यों चाहिये ?
  • क्या सही मायने मे, इसकी हमे जरुरत है ? या नही ?
  • यदि आरक्षण देना भी है तो, उसकी नीति क्या होनी चाहिये ?

संविधान निर्माताओं का मानना था कि दबी हुई एवं पीड़ित जातियों को एक बार व्यवस्था में लाने के बाद वे स्वयं अपने पैरों पर खड़े होने के योग्य बन सकेगे। सहारे के रूप में शुरू हुई आरक्षण व्यवस्था को दस वर्ष पूर्ण होने के बाद हटाने की बात आई तो देश में कई दलों ने अपने राजनितिक स्वार्थ के लिए चुनावी मुद्दा बना लिया।


आरक्षण किसे मिलना चाहिए | आरक्षण सही मायने में किसे मिलना चाहिए

आरक्षण, उस व्यक्ति को मिलना चाहिये, जो सही मायने मे उसका हकदार है। जबकि, उस व्यक्ति को, कोई फायदा ही नही मिल रहा है। क्योंकि, भारत एक विशाल जनसंख्या वाला देश है। यहा हर जाति समुदाय के, या वर्ग के लोग निवास करते है। भारत मे, बहुत प्राचीन प्रथा थी जो, अंग्रेजो के समय से थी जिसमे, उच्च-नीच का भेद-भाव बहुत होता था। धीरे-धीरे इस छोटी सी समस्या ने, एक विशाल रूप ले लिया। जिसके चलते जाति के आधार पर, व्यक्ति की पहचान होने लगी, और उसी जाति के आधार पर उसका शोषण होने लगा।


प्रथम आयोग का गठन

भारतवर्ष में पिछड़ी जातियों के सम्बन्ध और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 340 के अधीन प्रथम आयोग का गठन 29 जनवरी 1953 के तत्कालीन राष्ट्रपति के आदेश पर हुआ और आयोग ने सरकार के समक्ष अपनी रिपोर्ट 30 मार्च 1955 को प्रस्तुत की। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में 182 प्रश्नों की सूची संलग्न की और प्रत्यक्ष साक्ष्यों को एकत्र करने के लिए देश के विभिन्न भू- भागों का भ्रमण भी किया। पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए आयोग की सिफारिशें आदि व्यापक थीं, इस आयोग का नाम "काका कालेकर आयोग" था। 'कालेलकर आयोग' की सिफारिशों को सरकार ने स्वीकार नहीं किया क्योंकि इस आयोग की रिपोर्ट में समाज के उचित वर्गीकरण और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की निष्पक्ष परख और मानदण्ड सम्बन्धी विस्तृत ब्यौरे की कीमत बताई गयी थी।

सन 1955 के बाद दूसरा आयोग तत्कालीन प्रधानमंत्री ने 21 मार्च 1979 को गठित किया और इस आयोग का नाम 'मण्डल आयोग' था जिसने देश की जाति समस्या पर अपनी रिपोर्ट 31 दिसम्बर 1980 को सरकार के समक्ष प्रस्तुत की । मण्डल आयोग ने तर्क दिया कि पिछड़े वर्ग द्वारा झेली जा रही बाधाएँ हमारे सामाजिक ढाँचे में निहित हैं और उन्हें दूर करने के लिए सत्ताधारी वर्गों को व्यापक रचनात्मक परिवर्तन और पिछड़े वर्गों की समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में मूलभूत परिवर्तन अनिवार्य है। आयोग ने केवल 27 प्रतिशत आरक्षण को सिफारिश की जबकि देश में पिछड़े वर्गों की जनसंख्या लगभग दोगुनी है।


मण्डल आयोग का गठन

मण्डल आयोग ने राज्यवार जो सूची सरकार के सामने प्रस्तुत की उसका ब्यौरा इस प्रकार है पिछड़े वर्गों में आंध्र प्रदेश में 292 जातियाँ, असम में 135, बिहार में 150, हरियाणा में 76, हिमाचल में 57, जम्मू और काश्मीर में 63, कर्नाटक में 333, केरल में 208, मध्य प्रदेश में 279, महाराष्ट्र में 272, मणीपुर में 49, मेघालय में 37, उड़ीसा में 224, पंजाब में 83, राजस्थान में 140, सिक्किम में 10, तमिलनाडु में 288, त्रिपुरा में 136, उत्तर प्रदेश में 116, पश्चिम बंगाल में 177, अरुणाचल प्रदेश में 10, चण्डीगढ़ में 93, दादरा तथा नगर हवेली में 10, अंडमान निकोबार द्वीप समूह में 17, दिल्ली में 72, गोआ दमन द्वीव में 8, मिजोरम में 5, पांडिचेरी में 260 पिछड़े वर्ग की जातियों को दर्शाया गया।


मण्डल आयोग की सिफारिशें स्वीकार

"मण्डल आयोग" ने आरक्षण की सिफारिश करते समय विधान के विधिक रूप को भी सामने रखा कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्गों के लिए कुल आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। भारत सरकार ने 13 अगस्त 1990 को कार्यालय आदेश जारी कर के 'मण्डल आयोग' की सिफारिशों को स्वीकार कर क्रियान्वित कर दिया। 'मण्डल आयोग' की रिपोट को जारी करते समय सरकार ने इसकी सम्भावनाओं की ओर ध्यान नहीं दिया और परिणाम स्वरूप इस निर्णय से लोगों में असन्तोष फैल गया, और सरकार ने देश में प्रलय के घर जैसे खोल दिये हों। 'कालेलकर आयोग' की रिपोॉट पर सरकार ने बहस करा कर उसे अस्वीकार कर दिया मगर 'मण्डल आयोग' की रिपोर्ट पर सरकार द्वारा बिना कोई बहस विचार किये लागू कर देने का निर्णय एक भयंकर भूल रही। लोग इस बात से परिचित हैं कि सरकार हिंसक आन्दोलनों की भाषा हो सुनती हैं। अनेक राज्यों में प्रचण्ड प्रदर्शन, जन-विद्रोह के विस्फोट हुए यहाँ तर्क की छात्रों का आत्मदाह तो इतिहास को भी कलंकित कर गया।


मण्डल आयोग की त्रुटियाँ

वैसे तो मण्डल आयोग ने 11 सिफारिशें सरकार के समक्ष प्रस्तुत की जिनमें 3 मुख्य मुदूदे सामने उभारे गये (1) सामाजिक पिछड़ापन, (2) शैक्षिक पिछड़ांपन और, (3) आर्थिक पिछड़ापन । 'मण्डल आयोग' के सदस्य रिपोर्ट में जो भयंकर भूल कर गये वह आरक्षण की सिफारिश व्यक्ति पिछड़ेपन के आधार पर न करके जातिगत पिछड़ेपन को स्वीकार कर गये। "मण्डल आयोग" की रिपोर्ट में 5 घातक त्रुटियाँ भी सामने आईं और इन्हीं के विषैले परिणाम से सारे देश का भूगोल एक बार को हितकर रह गया। जो 5 त्रुटियाँ इस रिपोर्ट में आँकी गयीं उन पर संक्षेप में प्रकाश डाला जा रहा है -

  1. व्यवसाय उपक्रमों और शैक्षिक संस्थानों में रोजगार के लिए आरक्षण, परंतु यहाँ योग्यता जन्म लेने में भी असमर्थक होगी।
  2. जाति पर आधारित आरक्षण/एक ओर गरीब ब्राह्मण और दूसरी ओर धनाढ्य दलित। यह दृढ़ता यहाँ वास्तविकता का विरोध करती है।
  3. पिछड़ी जातियों के रोजगार और पदोन्‍नतियों में आरक्षण। यह बात प्रशासन और सेना जैसे विभागों के लिए तो अनर्थकारी सिद्ध हो सकतीं है।
  4. राष्ट्रीय चेतना में परिवर्तनके लिए आरक्षण ,यह निर्णय जातिवाद के नासूर में जीवन का नवा पट्टा जोरदार ढंग से नियोजित करता है । इस प्रक्रिया से देश में जातिवाद की समाप्ति नहीं अपितु जातिवाद का नया रूप उभरता है।
  5. देश की प्रगति और समानतावाद के लिए आरक्षण। समानता आरक्षण से कभी सम्भव हो ही नहीं सकती, इस निर्णय से तो देश में असमानता को बढ़ाने के अवसर हैं।
आरक्षण का उद्देश्य

आरक्षण की व्यवस्था को बनाने का उद्देश्य समाज के पिछड़े वर्ग को ऊपर उठाना था उनके जीवन स्तर में मूलभूत सुधार लाने थे, इसके लिए रोजगार एवं नौकरियों में आरक्षण के प्रावधानों को लागू किया जाना था। मगर राजनीतिक चालबाजी के चलते यह अपने उद्देश्यों को पूर्ण नहीं कर पाया। इसका परिणाम यह हुआ कि एक अनिश्चितकालीन सांविधानिक व्यवस्था को निरंतर बढ़ाया जाता रहा। नतीजा हम सभी के समक्ष है आज भी आरक्षित समुदाय के गरीब लोग इसके लाभ को नहीं ले पाए रहे हैं, जबकि सम्पन्न लोग इसे एक हथियार के रूप में उपयोग कर रहे हैं। भारत सरकार ने हाल ही में स्वर्ण जातियों के गरीबों के लिए भी दस प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की हैं। इन सबके बावजूद आरक्षण की व्यवस्था संतोष जनक नहीं है तथा इसे आर्थिक आधार पर लागू किये जाने की महत्ती आवश्यकता हैं।


उपसंहार

मण्डल आयोग द्वारा आरक्षण के आधार का अध्ययन करने के पश्चात देश के प्रबुद्ध नागरिकों ने इससे उत्पन्न स्थिति पर अपनी प्रतिक्रियाएँ प्रस्तुत की थीं। राजनेताओं ने भी आरक्षण के विरोध में अपनी प्रतिक्रियाएँ जनता के समक्ष रखी । यह खुले रूप से कहा गया कि आरक्षण को लागू करना संविधान की धारा 15 (4), 16 (4), 46 आदि का खुला उल्लंघन है कुछ न्यायविदों ने भी अपने विचार प्रस्तुत कर 'मण्डल आयोग' द्वारा प्रस्तुत आरक्षण रि्पोट पर सुधार के लिए सरकार को सुझाव भी दिये। यदि आरक्षण जातिगत न होकर व्यक्ति की दयनीय दशा, उसके गिरते आर्थिक स्तर को ध्यान में रखकर लागू किया जाये तब यह सम्भावनाएँ बलवीत होंगी कि यदि देश का हर नागरिक उन्नतशील होगा तो राष्ट्र स्वतः ही उन्नति करेगा।


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