राष्ट्रभाषा हिंदी पर निबंध

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हिंदी भाषा पर निबंध - राष्ट्रभाषा पर निबंध

Rashtrabhasha Hindi Essay - Rashtrabhasha Hindi Par Nibandh

रूपरेखा: राष्ट्र की शान - संविधान में हिंदी की स्थान - हिंदी को उचित सम्मान नहीं - हिंदी के विरुद्ध - उपसंहार।

राष्ट्र की शान

राष्ट्रभाषा हिंदी हमारे राष्ट्र की शान है। भारत की समानता की धुरी है। भारत की संस्कृति और सभ्यता की मूल चेतना को शुद्धता से अभिव्यक्त करने का माध्यम है । राष्ट्रीय विचारों का कोश है। भारतीय होने का प्रतीक है। स्वतंत्र भारत के संविधान निर्माण के समय हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करवाने के लिए कई हिंदी प्रेमियों और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सेवक ने प्रदर्शन किए, लाठियों का सामना किया। भारत के सविधान द्वारा कही हुए बात की अधीन संसद्‌ की कार्यवाही हिंदी अथवा अंग्रेजी में सम्पन्न होगी। 26 जनवरी, 1965 के पश्चात्‌ संसद्‌ की कार्यवाही केवल हिंदी में ही निस्पादित हो गयी थी।

संविधान में हिंदी की स्थान

चाहिए तो यह था कि संविधान में हिंदी को ही राष्ट्रभाषा माना जाता। अंग्रेजी के सहयोग की बात ही नहीं आनी चाहिए थी। कारण, राष्ट्रभाषा राष्ट्र की आत्मा का प्रतीक है। हमारे साथ स्वतंत्र होने वाले पाकिस्तान ने उर्दू को राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया था। तुर्की के जनप्रिय नेता कमाल पाशा ने स्वतंत्र होने के तत्काल पश्चात्‌ वहाँ तुर्की को राष्ट्रभाषा बना दिया था। इतना ही नहीं अपने नाम के साथ ' पाशा विदेशी शब्द हटाकर अपना नाम कमाल अतार्तुक कर दिया। हमारे पश्चात्‌ स्वंतंत्र होने वाले अनेक राष्ट्रों ने अपनी-अपनी राष्ट्रभाषा की घोषणा कर दी थी, किन्तु भारत के कर्णधार 'सबको खुश करने ' की प्रणाली पर चलते हैं। सबको खुश करने का अर्थ सबको नाराज करना होता है। उसके बाद वही हुआ जो नहीं होना चाहिए था।

हिंदी को उचित सम्मान नहीं

राजभाषा अधिनियम 1963 के अन्तर्गत हिंदी के साथ अंग्रेजी के प्रयोग को सदैव के लिए प्रयोगशील बना दिया गया। संसद में भी हिंदी के साथ अंग्रेजी के प्रयोग को अनुमति मिल गई और कहा गया कि जब तक भारत का एक भी राज्य हिंदी का विरोध करेगा, हिंदी को राष्ट्रभाषा के पद पर सिंहासनारूढ़ नहीं किया जाएगा।

हिंदी के विरुद्ध

देश के हिंदी रक्षक ने नेहरू के विरुद्ध बात कहने का साहस ही नहीं था। राष्ट्रकवि, राष्ट्रीय लेखक, राष्ट्रीय झंडा फहराने वाले हिंदी-लेखकों, हिंदी-संस्थाओं के संचालकों को काठ मार गया। वह नेहरू जी की भाषा में बोलने लगे, उन्ही के अनुरूप विचार प्रकट करने लगे। हिंदी शुभचिंतक को कुचलता हुआ देख आँखों में आसूं ना आयी। हाँ, एक मात्र कांग्रेसी, माँ-भारती का सच्चा सपूत सेठ गोविंद दास ही इस अग्नि-परीक्षा में सफल हुआ। जिन्होंने डंके की चोट सीना तान कर राजभाषा अधिनियम 1963 के विरुद्ध मत दिया। वे संसद्‌ में दहाड़ उठे, ' भले ही मुझे कांग्रेस छोड़नी पड़े, पर मैं आँखों देखा विष नहीं खा सकता। लोकततन्त्र के महान्‌ समर्थक पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा हिंदी को सिंहासनारूढ़ करने की अंतिम शर्त लोकतंत्र का अनादर है, जनतंत्र के आधारभूत नियमों के विरुद्ध है, प्रजातंत्र का गला घोंटना है । लोकतंत्र बहुमत की बात करता है, सबके साक्ष्य की नहीं । न सारे प्रांत कभी हिंदी को चाहेंगे, न हिंदी सिंहासनारूढ़ होगी। कांग्रेसी शासकों ने अंग्रेजों से सीखा था--'फूट डालो, राज्य करो।' यह सिद्धांत शासन-संचालन की अचूक औषध है। भाषा के प्रश्न पर उत्तर-दक्षिण की बात खड़ी करके भारतीय समाज को अलग कर दिया गया। हिन्दू-संस्कृति और सभ्यता, वैदिक-साहित्य का अध्ययन की क्षमता दक्षिण की उत्तर दान रही है। दक्षिण में आज भी हिन्दू-संस्कृति की झंडा फहरा रहे हैं। आज भी वेदों के पंडित तथा विद्वान्‌ उत्तर की अपेक्षा दक्षिण भारत में अधिक हैं।

उपसंहार

हिंदी कहने को राष्ट्रभाषा है, किन्तु प्रांतीय भाषाएँ भी उसके इस अधिकार की अधिकारिणी बना दी गई हैं । अंग्रेजी-साप्राज्य की गुलामी की प्रतीक अंग्रेजी आज भी भारत पर राज्य करती है। राज्य-कार्यों में आज भी उसका उपयोग किया जाता है। लेकिन आज भी और आगे भी हिंदी ही हमारी राष्ट्रभाषा हैं।

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